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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 67
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒श्विना॑ ह॒विरि॑न्द्रि॒यं नमु॑चेर्धि॒या सर॑स्वती।आ शु॒क्रमा॑सु॒राद्वसु॑ म॒घमिन्द्रा॒॑य जभ्रिरे॥६७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्विना॑। ह॒विः। इ॒न्द्रि॒यम्। नमु॑चेः। धि॒या। सर॑स्वती। आ। शु॒क्रम्। आ॒सु॒रात्। वसु॑। म॒घम्। इन्द्रा॑य। ज॒भ्रि॒रे॒ ॥६७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना हविरिन्द्रियन्नमुचेर्धिया सरस्वती । आ शुक्रमासुराद्वसु मघमिन्द्राय जभ्रिरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। हविः। इन्द्रियम्। नमुचेः। धिया। सरस्वती। आ। शुक्रम्। आसुरात्। वसु। मघम्। इन्द्राय। जभ्रिरे॥६७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 67
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    पदार्थ -
    १. (अश्विना) = प्राणापान तथा सरस्वती ज्ञानाधिदेवता (नमुचे:) = [न-मुचि, धर्ममत्यजत] धर्म को, अपने धारणात्मक कर्म को न छोड़नेवाले प्रभु के धिया ध्यान व ज्ञान के द्वारा (हविः) = त्यागपूर्वक अदन की भावना को और (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति को तथा (शुक्रम्) = जीव को शुद्ध [ शुच्] व सक्रिय [शुक्] बनानेवाले वीर्य को (वसु) = उत्तम निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों को तथा (मघम्) = पापशून्य, सुपथ से अर्जित ऐश्वर्य को (आसुरात्) = उस प्राणाशक्ति के देनेवाले प्रभु से (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (आजभ्रिरे) = प्राप्त कराए २. मानव जीवन की साधना में सबसे महत्त्वपूर्ण पग प्राणसाधना [ प्राणायाम्] व स्वाध्याय हैं। ३. इनसे मनुष्य में [क] त्यागपूर्वक अदन की भावना उत्पन्न होती है। इन्द्रियशक्ति उत्पन्न होती है। [ख] वीर्य स्थिर होता है जो उसके जीवन को शुद्ध व क्रियाशील बनाता है। [ग] उत्तम निवास के लिए आवश्यक सब तत्त्व उसमें विकसित होते हैं और [घ] उसे सुपथ - अर्जित ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्राणायाम व स्वाध्याय के द्वारा अश्विनीदेवों व सरस्वती की आराधना करें, जिससे हमारा जीवन 'हवि - इन्द्रिय- शुक्र-वसु व मघ' से सुशोभित हो ।

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