यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 36
समि॑द्ध॒ऽइन्द्र॑ऽउ॒षसा॒मनी॑के पुरो॒रुचा॑ पूर्व॒कृद्वा॑वृधा॒नः। त्रि॒भिर्दे॒वैस्त्रि॒ꣳशता॒ वज्र॑बाहुर्ज॒घान॑ वृ॒त्रं वि दुरो॑ ववार॥३६॥
स्वर सहित पद पाठसमि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। इन्द्रः॑। उ॒षसा॑म्। अनी॑के। पु॒रो॒रुचेति॑ पुरः॒ऽरुचा॑। पू॒र्व॒कृदिति॑ पूर्व॒ऽकृत्। व॒वृ॒धा॒नऽइति॑ ववृधा॒नः। त्रि॒भिरिति॑ त्रि॒ऽभिः। दे॒वैः। त्रि॒ꣳशता॑। वज्र॑बाहुरिति॒ वज्र॑ऽबाहुः। ज॒घान॑। वृ॒त्रम्। वि। दुरः॑। व॒वा॒र॒ ॥३६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धऽइन्द्रऽउषसामनीके पुरोरुचा पूर्वकृद्वावृधानः । त्रिभिर्देवैस्त्रिँशता वज्रबाहुर्जघान वृत्रँवि दुरो ववार ॥
स्वर रहित पद पाठ
समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। इन्द्रः। उषसाम्। अनीके। पुरोरुचेति पुरःऽरुचा। पूर्वकृदिति पूर्वऽकृत्। ववृधानऽइति ववृधानः। त्रिभिरिति त्रिऽभिः। देवैः। त्रिꣳशता। वज्रबाहुरिति वज्रऽबाहुः। जघान। वृत्रम्। वि। दुरः। ववार॥३६॥
विषय - द्वारोद्घाटन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का सोमभक्षण करनेवाला व्यक्ति अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला बनकर 'आङ्गिरस' बनता है और अग्रिम ग्यारह मन्त्रों का ऋषि यह 'आङ्गिरस' ही है। यह आङ्गिरस = सोम का पान व रक्षण करनेवाला व्यक्ति (समिद्ध:) = ज्ञान से खूब दीप्त बनता है। २. (इन्द्रः) = सब इन्द्रियों की शक्ति से सम्पन्न 'इन्द्र' बनता है । ३. यह (उषसाम् अनीके) [अनीकं मुखम्] = उष:कालों के अग्रभाग में ही (पुरोरुचा) = अग्रतो गामिनी दीप्ति से (वावृधान:) = निरन्तर बढ़ता हुआ होता है, अर्थात् बहुत प्रात:काल में ही स्वाध्यायादि के द्वारा उस ज्ञान को यह धारण करनेवाला होता है, जो ज्ञान इसकी निरन्तर उन्नति का कारण बनता है । ४. यह (पूर्वकृत्) = पूर्वदिशा को अपनी दिशा बनानेवाला होता है। यह दिशा 'उदय की दिशा' है - यह अपने जीवन में 'सत्य, यश व श्री' के दृष्टिकोण से उदयवाला होता है। ५. उदय के मार्ग पर चलता हुआ यह (त्रिभिः त्रिंशता देवैः) = तेतीस देवों से सम्पन्न होता है। ६. (वज्रबाहुः) = क्रियाशीलतारूप वज्र ( वज् गतौ) को हाथों में लिये होता है और (वृत्रं जघान) = इस वज्र से ज्ञान की आवरणभूत 'वृत्र' नामक वासना को नष्ट कर देता है। ७. वासना को नष्ट करके यह (दुरः) = मोक्षलोक के चार द्वारों को विववार खोल डालता है। मोक्ष के चार द्वार ('शमो विचार: संतोषः चतुर्थः साधुसंगम:') शम, विचार, सन्तोष व साधुसंगम हैं। इसके जीवन में ये चारों ही बातें होती हैं- यह शान्त होता है, विचारशील व सन्तोषी बनता है, सदा सत्सङ्ग में रुचिवाला होता है। बनता । उन्नति
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु का उपासक (उपहूत) स्वाध्याय द्वारा ज्ञानसमिद्ध हैकरता हुआ सब देवों को अपने में धारण करता है, क्रियाशील जीवन के द्वारा वासना से ऊपर उठता है और मोक्ष के चारों द्वारों को अपने लिए खोलता हुआ 'शान्त, विचारशील, सन्तोषी व सत्सङ्गी' बनता है।
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