यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 73
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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अ॒श्विना॒ गोभि॑रिन्द्रि॒यमश्वे॑भिर्वी॒र्यं बल॑म्।ह॒विषेन्द्र॒ꣳ सर॑स्वती॒ यज॑मानमवर्द्धयन्॥७३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्विना॑। गोभिः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। अश्वे॑भिः। वी॒र्य्य᳕म्। बल॑म्। ह॒विषा॑। इन्द्र॑म्। सर॑स्वती। यज॑मानम्। अ॒व॒र्द्ध॒य॒न् ॥७३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना गोभिरिन्द्रियमश्वेभिर्वीर्यम्बलम् । हविषेन्द्रँ सरस्वती यजमानमवर्दयन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अश्विना। गोभिः। इन्द्रियम्। अश्वेभिः। वीर्य्यम्। बलम्। हविषा। इन्द्रम्। सरस्वती। यजमानम्। अवर्द्धयन्॥७३॥
विषय - गौः अश्व
पदार्थ -
१. (अश्विना) = प्राणापान (गोभिः) = ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अथवा वेदवाणियों के द्वारा (इन्द्रियम्) = बल को, इन्द्रियों की शक्ति को, (वर्धयन्) = बढ़ाते हैं। २. (अश्वेभिः) = कर्मेन्द्रियों के द्वारा अथवा कर्मों में व्यापन के द्वारा वीर्यम् शरीर में रोगों का प्रतीकार करनेवाली शक्ति को तथा (बलम्) = बल को बढ़ाते हैं। ३. सरस्वती ज्ञानाधिदेवता (हविषा) = हवि के द्वारा (यजमानम्) = यज्ञशील, यज्ञ के स्वभाववाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को बढ़ाती है। ज्ञान से मनुष्य के अन्दर अकेले खा लेने की वृत्ति नष्ट होती है और वह हविर्मय जीवनवाला बन जाता है। ४. प्राणापान की साधना ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को निर्दोष बनाकर उनकी शक्ति को बढ़ाती है। प्राणापान के ठीक कार्य करने पर मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्ति में लगा रहता है और कर्मेन्द्रियों को यज्ञादि उत्तम कर्मों में व्याप्त किये रखता है। इस प्रकार इस प्राणसाधना से उसकी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का बल बढ़ता है।
भावार्थ - भावार्थ - प्राणायाम से हमारी इन्द्रियाँ निर्दोष बन बढ़ी हुई शक्तिवाली होती हैं और ज्ञान-प्राप्ति से हमारी यज्ञियवृत्ति का विकास होता है, हम हविरूप हो जाते हैं।
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