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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 116
तुभ्यं॒ ताऽअ॑ङ्गिरस्तम॒ विश्वाः॑ सुक्षि॒तयः॒ पृथ॑क्। अग्ने॒ कामा॑य येमिरे॥११६॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म्। ताः। अ॒ङ्गि॒र॒स्त॒मेत्य॑ङ्गिरःऽतम। विश्वाः॑। सु॒क्षि॒तय॒ इति॑ सुऽक्षि॒तयः॑। पृथ॑क्। अग्ने॑। कामा॑य। ये॒मि॒रे॒ ॥११६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यन्ता अङ्गिरस्तम विश्वाः सुक्षितयः पृथक् । अग्ने कामाय येमिरे ॥
स्वर रहित पद पाठ
तुभ्यम्। ताः। अङ्गिरस्तमेत्यङ्गिरःऽतम। विश्वाः। सुक्षितय इति सुऽक्षितयः। पृथक्। अग्ने। कामाय। येमिरे॥११६॥
विषय - राजा के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में विद्वान् और गृहपति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( अंगिरस्तम ) अति अधिक ज्ञानी या जलते अंगारों के समान तेजस्विन् ! ( ताः सुक्षितयः ) वे नाना उत्तम प्रजाएं ( पृथक् ) पृथक् २ ( कामाय तुभ्यं ) कामना करने योग्य, कान्तिमान्, तुम राजा को ( येमिरे) प्राप्त हों ॥ शत ७ । ३ । २ । ८ ॥
स्त्री-पुरुष के पक्ष मे- हे ( अंगिरस्तम ) अंग २ में रमण करनेवाले प्रियतम ( ताः विश्वाः सुक्षितयः ) वे समस्त उत्तम भूमि रूप स्त्रियां ( पृथक् ) पृथक २ ( कामाय तुभ्यम् ) काम्यस्वरूप, सुन्दर, तुझे या तुझे अपने हृदय को कामना पूर्ति के लिये ( येमिरे ) विवाहें ।अंगिरस्तम इति जात्यैकवचनम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विरूप ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । षड्जः ॥
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