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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे धा॒पये॑ते॒ शिशु॒मेकं॑ꣳ समी॒ची। द्यावा॒क्षामा॑ रु॒क्मोऽअ॒न्तर्विभा॑ति दे॒वाऽअ॒ग्निं धा॑रयन् द्रविणो॒दाः॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नक्तो॒षासा॑। नक्तो॒षसेति॒ नक्तो॒षसा॑। सम॑न॒सेति॒ सऽम॑नसा। विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे। धा॒पये॑ते॒ऽइति॑ धा॒पये॑ते। शिशु॑म्। एक॑म्। स॒मी॒ची इति॑ सम्ऽई॒ची। द्यावा॒क्षामा॑। रु॒क्मः। अ॒न्तः। वि। भा॒ति॒। दे॒वाः। अ॒ग्निम्। धा॒र॒य॒न्। द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नक्तोषासा समनसा विरूपे धापयेते शिशुमेकँ समीची । द्यावाक्षामा रुक्मोऽअन्तर्वि भाति देवाऽअग्निन्धारयन्द्रविणोदाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नक्तोषासा। नक्तोषसेति नक्तोषसा। समनसेति सऽमनसा। विरूपे इति विऽरूपे। धापयेतेऽइति धापयेते। शिशुम्। एकम्। समीची इति सम्ऽईची। द्यावाक्षामा। रुक्मः। अन्तः। वि। भाति। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणोदा इति द्रविणःऽदाः॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( नक्कोषासा ) रात्रि और दिन दोनों ( बिरूपे ) एक दूसरे के विपरीत कान्ति वाले तम स्वरूप और प्रकाशस्वरूप होकर ( समीची 1) परस्पर अच्छे प्रकार मिलकर सूर्य को धारण करते हैं उसी प्रकार माता पिता दोनों ( समनसौ ) एकचित्त होकर ( विरूपे ) विचित्र स्वरूप या विविध रुचिवाले और ( समींची) परस्पर संगत होकर ( एकम् ) एक ( शिशुम् ) बालक को ( धापयेते ) दुग्ध रसपान कराते और अन्न से पुष्ट करते हैं उसी प्रकार नक्र उषासा ) रात दिन के समान प्रकाश, अज्ञानी या निस्तेज निर्बल और ज्ञानी सतेज और सर्वत्र दोनों प्रकार के जन ( समीची) परस्पर संगत होकर ( शिशुम् ) बालक के समान ही प्रेमपात्र ( एकम् एकमात्र राजा को ( धापयेते) रस, अन्न और बलद्वारा पुष्ट करते हैं। वह भी ( द्यावाक्षामा ) आकाश और पृथिवी के ( अन्तः ) भीतर ( रुक्म: ) दीप्तिमान् सूर्य के समान तेजस्वी और पुत्र के समान माता पिता के बीच निर्बल प्रजा और सवल शासकों के बीच तेजस्वी होकर राजा ( विभाति ) प्रकाशित होता है । ( द्रविणोदाः ) वीर्य बल, अन्न को प्रदान करनेवाले ( देवाः ) वीर, विजयी,पराक्रमी राजगण, उस ( अग्निम् ) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष को ( धारयन् ) धारण करें ॥ शत० ६ । ७ । २ । ३ ॥ द्रविणोदाः कस्मात् । धनं द्रविणमुच्यते यदेनमभिद्रवन्ति । बलं वा दविणं यदनेनाभिद्रव न्ति । तस्य दाता द्रविणोदाः । निरु० ८। १ । २ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । कुत्स ऋषिः । भुरिगार्षी त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥

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