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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 38
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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प्र॒सद्य॒ भस्म॑ना॒ योनि॑म॒पश्च॑ पृथि॒वीम॑ग्ने। स॒ꣳसृज्य॑ मा॒तृभि॒ष्ट्वं ज्योति॑ष्मा॒न् पुन॒रास॑दः॥३८॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒सद्येति॑ प्र॒ऽसद्य॑। भस्म॑ना। योनि॑म्। अ॒पः। च॒। पृ॒थि॒वीम्। अ॒ग्ने॒। सं॒ऽसृज्येति॑ स॒म्ऽसृज्य॑। मा॒तृभि॒रिति॑ मा॒तृऽभिः॑। त्वम्। ज्योति॑ष्मान्। पुनः॑। आ। अ॒स॒दः॒ ॥३८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रसद्य भस्मना योनिमपश्च पृथिवीमग्ने । सँसृज्य मातृभिष्ट्वञ्ज्योतिष्मान्पुनरासदः ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रसद्येति प्रऽसद्य। भस्मना। योनिम्। अपः। च। पृथिवीम्। अग्ने। संऽसृज्येति सम्ऽसृज्य। मातृभिरिति मातृऽभिः। त्वम्। ज्योतिष्मान्। पुनः। आ। असदः॥३८॥
विषय - जीवात्मा और राजा का वर्णन ।
भावार्थ -
जीवपक्ष में- हे (अग्ने) जीव ! तू ( भस्मना ) अपने देह की भस्म से ( पृथिवीम् प्रसद्य ) पृथिवी में मिलकर और ( भस्मना ) तेजमय वीर्यरूप से ही ( अपः ) जलों और ( योनिं च ) मातृयोनि को भी प्राप्त होकर ( मातृभिः ) माताओं के साथ पितृरूपों में ( संसृज्य ) संयुक्त होकर ( ज्योतिष्मान् )तेजस्वी बालक होकर ( पुनः आसदः ) पुनः इस लोक में आता है।अग्नि-पक्ष में अग्नि जिस प्रकार भस्म होकर पुनः पृथिवी पर लीन होजाता है और जलों से मिलकर फिर ( मातृभिः ) ईश्वर की निर्माणकारिणी शक्तियों से युक्त होकर वृत्तादि रूप में पुनः काष्ठ होकर उत्पन्न होता है और जलता है | शत० ६ । ८ । २ । ६ ॥
राजा के पक्ष में --हे (अग्ने) तेजस्विन् राजन् ! ( भस्मना ) अपने तेज से (योनिम् ) अपने मूलकारण उत्पादक और आश्रयरूप ( अपः ) प्रजाओं और ( पृथिवीम् ) पृथिवी को ( प्रसद्य ) प्राप्त होकर ( मातृभिः ) ज्ञानशील पुरुषों के साथ ( संसृज्य ) मिलकर ( ज्योतिष्मान् ) सूर्य के समान तेजस्वी होकर (पुनः) बार २ ( आ सदः ) अपने व्यसन पर आदर- पूर्वक विराज ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । धैवतः ॥
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