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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 63
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - निर्ऋतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    नमः॒ सु ते॑ निर्ऋते तिग्मतेजोऽय॒स्मयं॒ विचृ॑ता ब॒न्धमे॒तम्। य॒मेन॒ त्वं य॒म्या सं॑विदा॒नोत्त॒मे नाके॒ऽअधि॑ रोहयैनम्॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः। सु। ते॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। ति॒ग्म॒ते॒ज॒ इति॑ तिग्मऽतेजः। अ॒य॒स्मय॑म्। वि। चृ॒त॒। ब॒न्धम्। ए॒तम्। य॒मेन॑। त्वम्। य॒म्या। सं॒वि॒दा॒नेति॑ सम्ऽविदा॒ना। उ॒त्त॒म इत्यु॑त्ऽत॒मे। नाके॑। अधि॑। रो॒ह॒य॒। ए॒न॒म् ॥६३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमः सु ते निरृते तिग्मतेजो यस्मयँ वि चृता बन्धमेतम् । यमेन त्वँयम्या सँविदानोत्तमे नाके अधि रोहयैनम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। सु। ते। निर्ऋत इति निःऽऋते। तिग्मतेज इति तिग्मऽतेजः। अयस्मयम्। वि। चृत। बन्धम्। एतम्। यमेन। त्वम्। यम्या। संविदानेति सम्ऽविदाना। उत्तम इत्युत्ऽतमे। नाके। अधि। रोहय। एनम्॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 63
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    भावार्थ -
    हे निर्ऋते ! व्यापक दण्डशक्ते ! ( तिग्मतेज: ) दुःसह तेज से युक्त ( ते नमः ) तेरा नमनकारी बल, बज्र है। और तू ( एतम् ) इस ( अयस्मसं बन्धम् विचृत ) लोहे से बने बन्धन को दूर कर । (वं ) लू ( यमेन ) नियन्ता राजा और ( यम्या ) नियमकारिणी राजसभा से ( संविदाना ) अच्छी प्रकार सम्मति करती हुई ( एनम् ) इस अपने राजा को ( उत्तमे ) उत्तम ( नाके ) सुखमय लोक में ( अधि. राहेय ) स्थापित कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निर्ऋतिर्देवता । भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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