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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 4
ऋषिः - श्यावाश्व ऋषिः
देवता - गरुत्मान् देवता
छन्दः - भुरिग्धृतिः
स्वरः - ऋषभः
1
सु॒प॒र्णोऽसि ग॒रुत्माँ॑स्त्रि॒वृत्ते॒ शिरो॑ गाय॒त्रं चक्षु॑र्बृहद्रथन्त॒रे प॒क्षौ। स्तोम॑ऽआ॒त्मा छन्दा॒स्यङ्गा॑नि॒ यजू॑षि॒ नाम॑। साम॑ ते त॒नूर्वा॑मदे॒व्यं य॑ज्ञाय॒ज्ञियं॒ पुच्छं॒ धिष्ण्याः॑ श॒फाः। सु॒प॒र्णोऽसि ग॒रुत्मा॒न् दिवं॑ गच्छ॒ स्वः पत॥४॥
स्वर सहित पद पाठसु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। अ॒सि॒। ग॒रुत्मा॑न्। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। ते॒। शिरः॑। गा॒य॒त्रम्। चक्षुः॑। बृ॒ह॒द्र॒थ॒न्त॒रे इति॑ बृहत्ऽरथन्त॒रे। प॒क्षौ। स्तोमः॑। आ॒त्मा। छन्दा॑सि। अङ्गा॑नि। यजू॑षि। नाम॑। साम॑। ते॒। त॒नूः। वा॒म॒दे॒व्यमिति॑ वामऽदे॒व्यम्। य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिय॒मिति॑ यज्ञाऽय॒ज्ञिय॑म्। पुच्छ॑म्। धिष्ण्याः॑। श॒फाः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। अ॒सि॒। ग॒रुत्मा॑न्। दिव॑म्। ग॒च्छ॒। स्व॑रिति॒ स्वः᳖। प॒त॒ ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपर्णासि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रञ्चक्षुर्बृहद्रथन्तरे पक्षौ । स्तोमऽआत्मा छन्दाँस्यङ्गानि यजूँषि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यँयज्ञायज्ञियम्पुच्छन्धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णासि गरुत्मान्दिवङ्गच्छ स्वः पत ॥
स्वर रहित पद पाठ
सुपर्ण इति सुऽपर्णः। असि। गरुत्मान्। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। ते। शिरः। गायत्रम्। चक्षुः। बृहद्रथन्तरे इति बृहत्ऽरथन्तरे। पक्षौ। स्तोमः। आत्मा। छन्दासि। अङ्गानि। यजूषि। नाम। साम। ते। तनूः। वामदेव्यमिति वामऽदेव्यम्। यज्ञायज्ञियमिति यज्ञाऽयज्ञियम्। पुच्छम्। धिष्ण्याः। शफाः। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। असि। गरुत्मान्। दिवम्। गच्छ। स्वरिति स्वः। पत॥१४॥
विषय - श्येन के शन्त से राजा और राष्ट्र के अंग प्रत्यंग का वर्णन ।
भावार्थ -
तू ( सुपर्स: ) उत्तम ज्ञानवान्, उत्तम पालन करने के साधनों से सम्पन्न, 'सुपर्ण', और (गमान् ) महान् गम्भीर आत्मा- वाला है । ( त्रिवृत्) कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों से युक्त साधना ( ते शिरः ) शरीर में शिर जिस प्रकार मुख्य है उसी प्रकार तेरा मुख्य व्रत हैं जो ( शिर: ) स्वयं समस्त दुःखों को नाश करता है। अथवा ( त्रिवृत्) तीनों लोक में व्यापक वायु के समान बलशाली पराक्रम, के जलाने, अपने गुणों के अङ्गार अर्चि और धूम के समान शत्रुओं प्रकाशन और सबको भय से कंपाने इन तीन गुणों से युक्त तेज होना हे राजन् ! ( ते शिरः ) तेरा शिर के समान मुख्य स्वरूप है । ( गायत्रं चक्षुः ) गायत्री से प्राप्त वेद ज्ञानतेरी चक्षु है । अथवा गायत्र अर्थात् ब्राह्मण, विद्वान् वेदज्ञ पुरुष और स्वतः गान करनेवाले को विपत्तियों से ज्ञान द्वारा त्राण करने में समर्थ वेद का परमज्ञान ( चक्षुः ) तेरे लिये सब पदार्थों को दर्शाने में समर्थ चक्षु के समान है । ( बृहद् रथन्तरे पक्षौ ) बृहत् और रथन्तर ये दोनों साम जिस प्रकार यज्ञ के पक्ष या बाजू के समान हैं उसी प्रकार यज्ञमय प्रजापति राजा के बृहत् अर्थात् सर्वश्रेष्ठता, सर्वज्येष्ठता अथवा उसका अपना ज्येष्ठ पुत्र युवराज या विशाल क्षात्रबल और 'रथन्तर' अर्थात् यह समस्त पृथिवी निवासी प्रजाजन और या वेदवाणी का ज्ञाता विद्वान्, या सेनापति या सम्राट् ये दोनों तुम राजशक्ति के दो पक्ष अर्थात् बाजू हैं । ( स्तोमः आत्मा ) स्तोम अर्थात् ऋग्वेद तेरी आत्मा अर्थात् अपना स्वरूप या देह के मध्य भाग के समान है । अथवा ( स्तोमः आत्मा ) परम वीर्य ही तुझ प्रजापालक प्रजापति, राजा का आत्मा, स्वरूप है । ( अंगानि छन्दांसि ) नाना छन्द जिस प्रकार यज्ञ के अग्ङ हैं उसी प्रकार प्रजापति रूप राष्ट्र के अन्तर्ग राष्ट्र को विपत्तियों से बचाने वाले एवं प्रजा के आश्रय स्थान होने से वे उसके अङ्ग हैं। (यजूंषि नाम ) यजुर्वेद की श्रुतियां ही उसके स्वरूप के समान हैं । अर्थात् यजुर्वेद में प्रतिपादित राष्ट्र के पालकों के विभाग ही राजा के कीर्त्तिजनक हैं । ( वामदेव्यम् साम ते तनूः ) हे यज्ञ ! तेरा शरीर वामदेव्य नामक साम है । जिस साम को वाम, वननीय एकमात्र उपास्य देव परमेश्वर ने ही सबको दर्शाया है वह साम यज्ञ का स्वरूप है। और राष्ट्रसय प्रजापति का भी ( वामदेव्यं) समस्त प्रजा के पालन करने का सामर्थ्य, सबके सम्भजन या शरण करने योग्य राजा का अपना ( साम ) शान्तिदायक सुखकारी उपाय ही ( ते तनूः ) तेरा विस्तारी राज्य है । ( यज्ञायज्ञियं पुच्छम् ) यज्ञ का यज्ञायज्ञिय नामक साम पुच्छ के समान है । प्रजापति का भी ( यज्ञायज्ञियम् ) पशु और अन्न आदि योग्य समृद्धि और जन समृद्धि राष्ट्र या प्रजापालक राज्य के ( पुच्छम् ) पूच्छ अर्थात् आश्रय- स्थान के समान है । ( धिष्ण्याः शफाः ) यज्ञ में जिस प्रकार धिष्य नामक अनि यज्ञ का आश्रय होने से वे शरीर में शफों या खुरों के समान है । उसी प्रकार राष्ट्रमय प्रजापति रूप यज्ञ के ( धिष्ण्याः ) धारण करने, और मार्गोपदेश करने में कुशल विद्यावान्, वाग्मी या अन्तपाल अधिकारी लोग ( शफाः ) शफ खुर या चरणों के समान आश्रय ह । इस प्रकार हे यज्ञ और राष्ट्रमय प्रजापति तू ( गरुत्मान् ) पक्षवाले ( सुपर्ण: ) विशाल पक्षी के समान ( गरुत्मान् ) महान् शक्तिमान् और ( सुपर्णः) उत्तम पालनकारी साधनों से युक्र ( असि ) है तू ( दिवं ) सुन्दर विज्ञान, प्रकाशमय लोक या राजसभाभवन को ( गच्छ ) प्राप्त हो । ( स्वः पत ) और सुख को प्राप्त कर ॥ शत० ६।७।२ । ६ ॥
१. 'त्रिवृत्' - वायुर्वा आशुः त्रिवृत् । स एष त्रिषु लोकेषु वर्तते । श० ८ । ४ । १ । ९ । त्रिवृद् अग्निः । श० ६ । ३ । १ । २५ ॥ ब्रह्मवै त्रिवृत् । तां० २।१६ । ४ ॥ तेजो वै त्रिवृत् तां० २ । १७ । २ ॥ वज्रो वै त्रिवृत् ष० ३ | ३॥४॥
२. ' गायत्रं ' -- यद् गायन्नत्रायत तद् गायत्रस्य गायनत्वं । जै० उ० । ३ । ३८ । ४ || गायत्री वा इयं पृथिवी । श० ४ । ३ । ४ ।३ ॥ गायत्रो ब्राह्मणः । ऐ० १ । २८ ॥ ब्रह्म वै गायत्री । ऐ० ४ । १ ।
३. 'वृहत् '--श्रैष्ठयं वै बृहत् । तां० ८ ।९। ११ । ज्यैष्ठ्यं वै बृहत् । ऐ० ८ १ २ ॥ यथा वै पुत्रो ज्येष्ठः एवं वै बृहत् प्रजापतेः ॥ तां० ७ । ६ । ६ ॥ द्यौर्बृहत् । ता० १६ । १०।८ ॥ क्षत्रं बृहत् । ऐ० ८ । १२ ॥
४. ' रथन्तरं ' साम-अयं वै लोको रथन्तरम् । ऐ० ८। २ ॥ वाग् वै रथन्तरम् | ऐ० ४ । २८ ॥ रथन्तरं वै सम्राट् । तै० १।४ । ४ ।॥ अग्निर्वै रथन्तरम् । ए० ५। ३० ॥
५. स्तोमः- वीर्य वै स्तोमाः । ता० २ । ५ । ४ ॥
६. ( छन्दांसि ) इन्द्रियं वीर्य छन्दांसि । श० ७ । ३ । १ । ३७ ॥ प्राणाः वै छन्दांसि । कौ० ७।९ ॥ छन्दांसि वै देवाः साध्याः । ते अग्ने अग्निमयजन्त । ऐ० १ । १६ ॥ प्रजापतेर्वा एतान्यंगानि यच्छन्दांसि । ऐ० २ । १८ ॥
७. ' वामदेव्यं साम ' -- पिता वै वामदेव्यं पुत्राः पृष्ठानि ता० ७ । ९ । १ ॥ प्रजापतिर्वै वामदेव्यं । तां० ४ । ८ । १५ ॥श ० १३ । ३ । ३ । ४ ॥ पशवो वै वामदैव्यम् । तां० ४। ८ । १५ ॥
८. 'यज्ञायज्ञियम्' अतिशयं वै द्विपदां यज्ञायज्ञियम् । तां० ५।१ ।१९॥ वाग् यज्ञायज्ञीयम् । तां० ५ । ३ । ७ ॥ पशवोऽनाथं यज्ञा- यज्ञीयम् । तां० १५ । ६ । १२ ॥
९. ' धिष्ण्याः 'वाग् वै धिषणा। श० ६ । ५। ४ । ५ || विद्या वै धिषणा । तै० ३ । २ । २ । १ ॥ अन्तो वै धिषणा । ऐ० ५ ॥ २ ॥ [-स्वानः भ्राजः अंधारिः बम्भारिः हस्तः सुहस्तः कृशानुः ] एतानि वै विष्ण्यानां नामानि श ० ३ । ३। ३ । ११ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् देवता । धृतिः कृतिर्वा । ऋषभः ॥
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