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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 32
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    वि॒श्वक॑र्मा॒ ह्यज॑निष्ट दे॒वऽआदिद् ग॑न्ध॒र्वोऽअ॑भवद् द्वि॒तीयः॑। तृ॒तीयः॑ पि॒ता ज॑नि॒तौष॑धीनाम॒पां गर्भं॒ व्यदधात् पुरु॒त्रा॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वऽक॑र्मा। हि। अज॑निष्ट। दे॒वः। आत्। इत्। ग॒न्ध॒र्वः। अ॒भ॒व॒त्। द्वि॒तीयः॑। तृ॒तीयः॑। पि॒ताः। ज॒नि॒ता। ओष॑धीनाम्। अ॒पाम्। गर्भ॑म्। वि। अ॒द॒धा॒त्। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वकर्मा ह्यजनिष्ट देवऽआदिद्गन्धर्वोऽअभवद्द्वितीयः । तृतीयः पिता जनितौषधीनामपाङ्गर्भम्व्यदधात्पुरुत्रा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वऽकर्मा। हि। अजनिष्ट। देवः। आत्। इत्। गन्धर्वः। अभवत्। द्वितीयः। तृतीयः। पिताः। जनिता। ओषधीनाम्। अपाम्। गर्भम्। वि। अदधात्। पुरुत्रेति पुरुऽत्रा॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 32
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    भावार्थ -
    राजा के पक्ष में - (विश्वकर्मा ) राष्ट्र के समस्त उत्तम कार्यों का सञ्चालक, प्रवर्त्तक ( हि ) निश्रय से ( देवः ) वह सर्वप्रद, सर्वविजयी राज सबसे प्रथम ( अजनिष्ट ) प्रकट होता है । ( आत् इत् ) उसके बाद ( गन्धर्वः ) गौ अर्थात् पृथिवी का धारण करने वाला भूमिपति, गौ वाणी शासनाज्ञा का धारक ( अभवत् ) होता है। और फिर ( तृतीयः ) तीसरे वह ( ओषधीनाम् ) ओष अर्थात् शत्रु के दाह करने के वीर्य को धारण करने वाली सेनाओं का पालक और उत्पादक है। वह ही (पुरुत्रा) बहुतों को रक्षा करने में समर्थ होकर ( अपाम् )आप्त प्रजाजनों का ( गर्भम् ) गर्भ अर्थात् ग्रहण करने वाले, उनको वश करने वाले राष्ट्र को ( व्यददधात् ) विविध प्रकार से विधान करता है । विविध व्यवस्थाओं से उनको व्यवस्थित करता है। राजा के क्रम से चार रूप हुए प्रथम 'देव' विजिगीषु, दूसरा 'गन्धर्व' विजित भूमि का स्वामी, तृतीय सेनाओं का पालक और उत्पादक, चतुर्थ प्रजाओं का वशकर्त्ता । ईश्वरपक्ष में - सब से प्रथम ( विश्वकर्मा देवः हि अजनिष्ट ) विश्व का कर्त्ता प्रकाशस्वरूप विद्यमान था । ( आत् इत् द्वितीयः गन्धर्वः अभवत् ) फिर उससे गौ, वाणी वेद, और पृथिवी का धारक सूर्य प्रकट हुआ यह ईश्वरीय शक्ति का दूसरा रूप था । ( तृतीयः ओषधीनां जनिता पिता च ) तीसरा, ओषधियों-घास लता वृक्षादि का पालक और उत्पादक मेघरूप है । वह ( अपां गर्भम् पुरुत्रा व्यदधात् ) मेघ होकर प्रजापति बहुत से जीव सर्गों के पालने में समर्थ होकर जलों को अपने गर्भ में धारण करता है । अध्यात्म में - विश्वकर्मा आत्मा है । वह वाणी का प्राण द्वारा धारक होने से गन्धर्व है। ओषधि-ज्ञान-धारक इन्द्रियगण का पालक और उत्पादक है। वह ( अपां गर्भम् ) ज्ञानों और कर्मों को ग्रहण करने में समर्थ होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वराडार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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