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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 65
    ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    क्रम॑ध्वम॒ग्निना॒ नाक॒मुख्य॒ꣳ हस्ते॑षु॒ बिभ्र॑तः। दि॒वस्पृ॒ष्ठ स्व॑र्ग॒त्वा मि॒श्रा दे॒वेभि॑राध्वम्॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्रमध्वम्। अ॒ग्निना॑। नाक॑म्। उख्य॑म्। हस्ते॑षु। बिभ्र॑तः। दि॒वः। पृ॒ष्ठम्। स्वः॑। ग॒त्वा। मि॒श्राः। दे॒वेभिः॑। आ॒ध्व॒म् ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रमध्वमग्निना नाकमुख्यँ हस्तेषु बिभ्रतः । दिवस्पृष्ठँ स्वर्गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    क्रमध्वम्। अग्निना। नाकम्। उख्यम्। हस्तेषु। बिभ्रतः। दिवः। पृष्ठम्। स्वः। गत्वा। मिश्राः। देवेभिः। आध्वम्॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 65
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    भावार्थ -
    हे वीर पुरुषो ! तुम लोग (अग्निना) अपने अग्रणी तेजस्वी, ज्ञानवान् नेता राजा और आचार्य के साथ ( नाकम् ) सुखप्रद, ( उख्यम् ) उस उखा नाम पृथ्वी के हितकारी भोग्य राष्ट्र सुख को ( हस्तेषु ) अपने शत्रु को हनन करने वाले शस्त्रास्त्रों के बल पर ( विभ्रतः ) धारण करते हुए ( क्रमध्वम् ) आगे बढो। (दिवः पृष्ठं ) न्याय, विद्या आदि से प्रकाशित सूर्य के समान तेजस्वी ( पृष्ठ ) पालन करने वाले ( स्वः ) सुखमय राज्य को ( गत्वा ) प्राप्तकरके( देवेभिः ) विद्वान् विजयी पुरुषों के साथ ( मिश्राः ) मिलकर ( आध्वम् ) विराजो | शत ९।२।३।२४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । विराडार्ष्यनुष्टुप् । गांधारः ॥

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