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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 57
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृदार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    वी॒तꣳ ह॒विः श॑मि॒तꣳ श॑मि॒ता य॒जध्यै॑ तु॒रीयो॑ य॒ज्ञो यत्र॑ ह॒व्यमेति॑। ततो॑ वा॒काऽआ॒शिषो॑ नो जुषन्ताम्॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वी॒तम्। ह॒विः। श॒मि॒तम्। श॒मि॒ता। य॒जध्यै॑। तु॒रीयः॑। य॒ज्ञः। यत्र॑। ह॒व्यम्। एति॑। ततः॑। वा॒काः। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽऽशिषः॑। नः॒। जु॒ष॒न्ता॒म् ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वीतँ हविः शमितँ शमिता यजध्यै तुरीयो यज्ञो यत्र हव्यमेति । ततो वाका आशिषो नो जुषन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वीतम्। हविः। शमितम्। शमिता। यजध्यै। तुरीयः। यज्ञः। यत्र। हव्यम्। एति। ततः। वाकाः। आशिष इत्याऽऽशिषः। नः। जुषन्ताम्॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 57
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    भावार्थ -
    ( यत्र ) जिसने ( वीतं ) सर्वत्र व्याप्त होने योग्य, ( शमिता शमितम् ) शान्ति दायक पुरुष द्वारा शान्ति सुख देने योग्य बनाया गया, ( हविः ) आहुति योग्य चरु ( यजध्यै ) अग्नि में आहुति करने के लिये ( एति ) प्राप्त होता है वह ( तुरीयः ) चतुर्थ या सर्वश्रेष्ठ ( यज्ञः ) यज्ञ कहा जाता है । ( ततः ) उससे ( वाकाः ) प्रार्थनाएं, ( आशिषः) उत्तम कामनायें ( न: जुषन्ताम् ) हमें प्राप्त हों । शत० ९ । २ । ३ । ११ ॥ तुरीयः यज्ञः = चौथा यज्ञ, अध्वर्युः पुरस्तात् यजूंषि जपति । होता पश्वादृचोऽन्वाह, ब्रह्मा दक्षिणतोऽप्रतिरथं जपति एष तुरीयश्चतर्थो यज्ञः ॥ प्रथम अध्वर्यु यजुषों का कहता है । फिर होता ऋचा पढ़ता है । फिर ब्रह्मा अप्रतिरथ सूक्त का पाठ करता है। यह चतुर्थ यज्ञ है। शत० ९। २ । ३ । ११ अथवा प्रथम अध्वर्यु का श्रावण, फिर अग्निध्र का प्रत्याश्रवण फिर अध्वर्यु का प्रैष, फिर होता का स्वाहाकार । अथवा - अभ्यात्म में ( यत्र ) जिस आत्मा में ( शमिता ) शम दम की साधना द्वारा ( शमितं ) शान्त किया गया (वीतम् ) ज्ञान से युक्त ( हविः ) ग्राह्य, आत्मा ( यजध्यै ) परमेश्वर के प्रति समर्पण कर देने के लिये ही ( हवन् एति ) स्तुति योग्य या आदान योग्य परम वेद्य परमात्मा को ( एति ) प्राप्त हो जाता है वह ( तुरीयः यज्ञः ) 'तुरीय' अर्थात् ब्रह्म की प्राप्ति रूप 'यज्ञ' कहाता है । ततः ) उस तुरीय पद को प्राप्त ब्रह्मज्ञानी से हमें ( वाकाः ) वाणी से बोलने योग्य आशीर्वाद ( नः जुपन्ताम् हमें प्राप्त हों । राष्ट्र पत्र में - ( शमिता ) प्रजा में शान्ति फैलाने में समर्थ पुरुष द्वारा ( शम्-इतम् ) शान्त गुण युक्त किये (वीतम्) व्यापक (हविः) उपाय, या आदान योग्य कर जहां (यजध्वै) राजा को देने के लिये ( हव्यम् ) पूजनीय प्रभु को प्राप्त होता है वह तुरीय सर्वश्रेष्ठ ( यज्ञः ) व्यवस्थित राज्य है । (ततः) उस राज्य से ( वाकाः ) गुरुपदेश योग्य विद्याएं और ( आशिषः ) उतम इच्छाएं (नः) हमें ( जुषन्ताम् ) प्राप्त हो ।

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