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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी स्वरः - निषादः
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    पा॒व॒कया॒ यश्चि॒तय॑न्त्या कृ॒पा क्षाम॑न् रुरु॒चऽउ॒षसो॒ न भा॒नुना॑। तूर्व॒न् न याम॒न्नेत॑शस्य॒ नू रण॒ऽआ यो घृ॒णे न त॑तृषा॒णोऽअ॒जरः॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒व॒कया॑। यः। चि॒तय॑न्त्या। कृ॒पा। क्षाम॑न्। रु॒रु॒चे। उ॒षसः॑। न। भा॒नुना॑। तूर्व॑न्। न। याम॑न्। एत॑शस्य। नु। रणे॑। आ। यः। घृ॒णे। न। त॒तृ॒षा॒णः। अ॒जरः॑ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पावकया यश्चितयन्त्या कृपा क्षामन्रुरुचऽउषसो न भानुना । तूर्वन्न यामन्नेतशस्य नू रणऽआ यो घृणे न ततृषाणोऽअजरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पावकया। यः। चितयन्त्या। कृपा। क्षामन्। रुरुचे। उषसः। न। भानुना। तूर्वन्। न। यामन्। एतशस्य। नु। रणे। आ। यः। घृणे। न। ततृषाणः। अजरः॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्रों की प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति अपने में शक्ति को भरनेवाला भारद्वाज' बनता है। प्रस्तुत मन्त्र में इस भारद्वाज का ही चित्रण करते हुए कहते हैं कि भारद्वाज वह है (यः) = जो (पावकया) = जीवन को पवित्र बनानेवाली (चितयन्त्या) = [चेतयन्त्या] संज्ञान से परिपूर्ण करनेवाली (कृपा) = [कृप् सामर्थ्ये] शक्ति से (क्षामन्) = इस पृथिवी में, अर्थात् इस शरीर में [पृथिवी शरीरम् ] (रुरुच) = इस प्रकार शोभायमान होता है (न) = जैसे (उषसः) = उष:काल (भानुना) = सूर्य की प्रारम्भिक किरणों से। यह उषःकाल का प्रकाश मनों में पवित्र भावनाओं का सञ्चार करने से 'पावक' है, अन्धकार को दूर करने से 'चेतयन्' है, यह सबको जागने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार भारद्वाज की शक्ति भी पवित्रता व चेतना से युक्त है। २. यह भारद्वाज वह है (यः) = जो (नू) = निश्चय से (एतशस्य रणे) = इन इन्द्रियाश्वों के संग्राम में (यामन्) = जीवनयात्रा के मार्ग में (तूर्वन् न) = हिंसा न करता हुआ चलता है। इन्द्रियाँ विषयों में जाने लगती हैं, यह भारद्वाज उन इन्द्रियों को विषयों में जाने नहीं देता। यही इसका इन्द्रियाश्वों का संग्राम है। इस संग्राम में यह इनको मार लेता है, जीत लेता है । इन्द्रियों को निर्बल नहीं होने देता, परन्तु उनको अपने पर प्रबल भी नहीं होने देता। ३. यह भारद्वाज वह है (यः) = जो आघृणेन समन्तान् ज्ञान की दीप्ति से (ततृषाण:) = अत्यन्त पिपासित होता है, अर्थात् जिसको प्रकृतिविद्या में व आत्मविद्या में सब ओर ही ज्ञान की प्यास है [ अपराविद्या व पराविद्या] दोनों में ही अपने ज्ञान को यह बढ़ाने का प्रयत्न करता है। वस्तुतः इन्द्रिय-संग्राम में विजय का रहस्य इस ज्ञान की पिपासा में ही है। ४. इस ज्ञान की प्यास से विषयों से बचकर यह (अजर:) = अजीर्णशक्ति बना रहता है और अपने 'भारद्वाज' नाम को सार्थक करता है।

    भावार्थ - भावार्थ - १. भारद्वाज पवित्र व ज्ञान सम्पन्न शक्ति से चमकता है। २. यह इन्द्रिय-संग्राम में विजयी होता है । ३. इसकी ज्ञान की प्यास प्रबल होती है। ४. ज्ञान की प्यास इसे विषयों से बचाकर अजीर्णशक्ति बनाये रखती है।

    - सूचना - वेद के शब्दों में शक्ति वही प्रशंसनीय है, जिसके साथ पवित्रता व ज्ञान का समन्वय है। 'शरीर में शक्ति, मन में पवित्रता, मस्तिष्क में ज्ञान' ये ही मनुष्य के जीवन को उत्तम बनाते हैं।

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