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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 11
    ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    नम॑स्ते॒ हर॑से शो॒चिषे॒ नम॑स्तेऽअस्त्व॒र्चिषे॑। अ॒न्याँस्ते॑ अ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। ते॒। हर॑से। शो॒चिषे॑। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। अ॒र्चिषे॑। अ॒न्यान्। ते॒। अ॒स्मत्। त॒प॒न्तु॒। हे॒तयः॑। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽअस्त्वर्चिषे । अन्याँस्तेऽअस्मत्तपन्तु हेतयः पावकोऽअस्मभ्यँ शिवो भव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। ते। हरसे। शोचिषे। नमः। ते। अस्तु। अर्चिषे। अन्यान्। ते। अस्मत्। तपन्तु। हेतयः। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र का 'भारद्वाज' अपने जीवन को शक्तिसम्पन्न, पवित्र व ज्ञानमय बनाकर सब वासनाओं का विलोप करने लगता है, इन्द्रिय-संग्राम में जीतता है। वासनाओं का विलोप करने के कारण यह 'लोपा' कहलाता है और वासना-विनाश से ही सदा प्रसन्न रहने के कारण 'मुद्रा' नामवाला होता है, अतः इसका पूरा नाम 'लोपामुद्रा' हो जाता है। इसके जीवन के लिए प्रभु कहते हैं कि २. (ते हरसे) = तेरी इस बुराइयों के हरण की शक्ति के लिए (नमः) = तेरा आदर करते हैं। ३. (शोचिषे) = तेरी इस मानस शुचिता के लिए आदर करते हैं। ४. (ते अर्चिषे नमः अस्तु) = तेरी इस प्रदीप्त ज्ञानाग्नि की ज्वाला के लिए आदर हो । (अस्मत्) = हमसे प्राप्त (ते) = तेरी ये (हेतयः) = प्रेरणाएँ (अन्यान्) = औरों को भी तपन्तु दीप्त करनेवाली हों, अर्थात् तू मुझसे ज्ञान प्राप्त करके इस ज्ञान को औरों तक पहुँचानेवाला बन । ५. (पावक:) = अपने जीवन को पवित्र करनेवाला तू ६. (अस्मभ्यम्) = हमारी प्राप्ति के लिए (शिवः भव) = कल्याण करनेवाला हो।

    भावार्थ - भावार्थ- 'लोपा - मुद्रा' के जीवनवाला व्यक्ति अवश्य प्रभु को प्राप्त होता है। यह बुराइयों का हरण करता है, मन को शुचि बनाता है, मस्तिष्क को दीप्त ज्ञानाग्नि की ज्वाला । औरों को ज्ञान प्राप्त कराता हुआ यह अपने जीवन को पवित्र करता है, सभी का कल्याण करता है।

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