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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 70
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे धा॒पये॑ते॒ शिशु॒मेक॑ꣳ समी॒ची। द्यावा॒क्षामा॑ रु॒क्मोऽअ॒न्तर्विभा॑ति दे॒वाऽअ॒ग्निं॑ धा॑रयन् द्रविणो॒दाः॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नक्तो॒षासा॑। नक्तो॒षसेति॒ नक्तो॒षसा॑। सम॑न॒सेति॒ सऽम॑नसा। विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे। धा॒पये॑ते॒ इति॑ धा॒पये॑ते। शिशु॑म्। एक॑म्। स॒मी॒ची इति॑ सम्ऽई॒ची। द्यावा॒क्षामा॑। रु॒क्मः। अ॒न्तः। वि। भा॒ति॒। दे॒वाः। अ॒ग्निम्। धा॒र॒य॒न्। द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नक्तोषासा समनसा विरूपे धापयेते शिशुमेकँ समीची । द्यावाक्षामा रुक्मोऽअन्तर्विभाति देवाऽअग्निं धारयन्द्रविणोदाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नक्तोषासा। नक्तोषसेति नक्तोषसा। समनसेति सऽमनसा। विरूपे इति विऽरूपे। धापयेते इति धापयेते। शिशुम्। एकम्। समीची इति सम्ऽईची। द्यावाक्षामा। रुक्मः। अन्तः। वि। भाति। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणोदा इति द्रविणःऽदाः॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 70
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्रों का ऋषि 'विधृति' = विशिष्ट धैर्य के साथ आगे बढ़ता हुआ सब बुराइयों को समाप्त करनेवाला बनता है और 'कुत्स' [कुथ हिंसायाम्] कहलाता है। जो पति-पत्नी परस्पर सहायता करते हुए 'कुत्स' बनते हैं, उनका चित्रण करते हुए कहते हैं कि २. (नक्तोषासा) = [ओलस्जी व्रीडे, उष दाहे] पत्नी 'नक्त' है 'व्रीडा' उसका मुख्य गुण है, वह उचित लज्जा को कभी नहीं त्यागती। पति 'उषस्' है, यह सब बुराइयों को जलाने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार ये उचित लज्जाशील व दोष दहनवाले पति-पत्नी ३. (समनसा) = समान मनवाले होते हैं। इनके मनों में कभी विरोधी भावनाएँ उत्पन्न नहीं होतीं। ४. (विरूपे) = ये दोनों विशिष्ट रूपवाले होते हैं, अत्यन्त तेजस्वी होते हैं । ५. (समीची) = [सम्यक् अञ्चतः] ये मिलकर उत्तम गतिवाले होते हैं। इनकी क्रियाओं में विरोध न होकर सामञ्जस्य होता है। ६. ये दोनों (एकं शिशुं धापयेते) = अद्वितीय सन्तान का पालन करते हैं। [यहाँ एक सन्तान का उल्लेख ध्यान देने योग्य है। महाभारत में कृष्ण और रुक्मिणी की भी एक सन्तान है, 'प्रद्युम्न'। रामायण में कौसल्या की भी एक ही सन्तान है, 'राम' महाभारत में युधिष्ठिर की भी एक ही सन्तान है, 'श्रुतकीर्ति'।] ७. (द्यावाक्षामा) = पति द्युलोक के समान ज्ञानदीप्त बनता है तो पत्नी पृथिवीलोक के समान सहनशील [क्षम् ] । इन दोनों के (अन्तः) = मध्य में (रुक्मः) = चमकता हुआ वह सन्तान विभाति शोभता है। ८. उत्तम गुणों को धारण करनेवाले (देवाः) = इस घर के सब व्यक्ति (अग्निं धारयन्) = उस अग्रेणी प्रभु को अपने अन्दर धारण करते हैं और ९. (द्रविणोदा:) = [द्रव्यप्रदातारा : - द०] धनों का दान देनेवाले होते हैं। प्रभु को अपनानेवाला त्यागवृत्तिवाला होता है। धन व प्रभु दोनों की उपासना सम्भव नहीं । प्रभु की उपासना की पहचान ही यह है कि धनासक्ति कम हुई या नहीं। प्रभुसक्त धनासक्त नहीं होता ।

    भावार्थ - भावार्थ - १. पति-पत्नी ने उचित व्रीडाशील व दोष-दहनवाला होना है। २. समान मनवाला ३. विशिष्ट रूपवाला। ४. ये दोनों [समीची] सङ्गतिवाले होकर एक सन्तान का सुन्दर पालन करते हैं। ५. इनके दीप्त मस्तिष्क व दृढ़ शरीर के मध्य में निर्मल मन चमकता है। ६. ये देव बनकर प्रभु को अपने निर्मल मन में धारण करते हैं और ७. धनों का दान देनेवाले होते हैं। ये प्रभु की निम्न शब्दों से उपासना करते हैं-

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