यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 67
ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः
देवता - अग्नि देवता
छन्दः - पिपीलिकामध्या बृहती
स्वरः - मध्यमः
0
पृ॒थि॒व्याऽअ॒हमुद॒न्तरि॑क्ष॒मारु॑हम॒न्तरि॑क्षा॒द् दिव॒मारु॑हम्। दि॒वो नाक॑स्य पृ॒ष्ठात् स्वर्ज्योति॑रगाम॒हम्॥६७॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थि॒व्याः। अ॒हम्। उत्। अ॒न्तरि॑क्षम्। आ। अ॒रु॒ह॒म्। अ॒न्तरि॑क्षात्। दिव॑म्। आ। अ॒रु॒ह॒म्। दि॒वः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठात्। स्वः॑। ज्योतिः॑। अ॒गा॒म्। अ॒हम् ॥६७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिव्याऽअहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् । दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्वर्ज्यातिरगामहम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पृथिव्याः। अहम्। उत्। अन्तरिक्षम्। आ। अरुहम्। अन्तरिक्षात्। दिवम्। आ। अरुहम्। दिवः। नाकस्य। पृष्ठात्। स्वः। ज्योतिः। अगाम्। अहम्॥६७॥
विषय - ऊपर और ऊपर
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र में 'पूर्व दिशा का लक्ष्य करके आगे बढ़ने' का उल्लेख था। उसी आगे बढ़ने को स्पष्ट करके कहते हैं कि (अहम्) = मैं (पृथिव्याः) = इस पृथिवी से (उत्) = ऊपर उठकर (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्षलोक में (आरुहम्) = आरोहण करूँ। २. इसी प्रकार (अन्तरिक्षात्) = अन्तरिक्ष से ऊपर उठकर (दिवम् आरुह)म् = द्युलोक में आरोहण करूँ। ३. (दिवः) = द्युलोक का (नाकस्य) = जो सुखमय प्रदेश है, जिसमें दुःख नहीं है उस स्वर्गप्रदेश के (पृष्ठात्) = पृष्ठ से (स्वर्ज्योतिः) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को (अहम्) = मैं (अगाम्) = प्राप्त होऊँ। ४. इस जीवन-यात्रा में हमें आगे और आगे बढ़ना है। 'आरोहणमाक्रमण'-' चढ़ना और आगे कदम रखना' यही तो जीवित पुरुष का मार्ग है। जितने जितने हमारे कर्म उत्तम होते हैं उतना उतना हमारा जन्म उत्कृष्ट लोकों में होता है - [क] सामान्यतः ५० पुण्य व ५० पाप होने पर हम इस पृथिवीलोक पर जन्म लेते हैं। [ख] पुण्य ८० व पाप २० रह जाने पर हमारा जन्म चन्द्रलोक में होता है, वहाँ सुख अधिक और दुःख बहुत कम हो जाता हैं। [ग] अब पुण्य ९९ तथा पाप एक-आध रह जाने पर हमारा जन्म द्युलोक में होता है जहाँ सुख ही सुख है। [घ] इस जीवन यात्रा की पूर्ति उस दिन होती है जब हम १०० के १०० पुण्यकर्म करते हुए उनके अभिमान से ऊपर उठे हुए द्युलोक से भी ऊपर उठकर उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। ब्रह्म को प्राप्त करने पर यह आने-जाने का चक्र समाप्त होता है । ५. पृथिवी आदि से ऊपर उठने का भाव इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है [क] 'हम पृथिवी पृष्ठ से उठकर अन्तरिक्ष में पहुँचें' अर्थात् 'पृथिवी शरीरम्' शरीर की शक्तियों का विस्तार करें, परन्तु शरीर में ही न उलझे रह जाएँ। केवल शारीरिक उन्नति सम्भवतः हमें 'हाथी' की योनि में भेज देगी। [ख] अतः हम शरीर के साथ हृदयान्तरिक्ष का भी ध्यान करें। हम अपने हृदय को बड़ा निर्मल बनाने का यत्न करें, परन्तु हृदय की निर्दोषता पर ही रुक गये तो भी गौ का जीवन मिल जाएगा। [ग] हृदय से ऊपर उठकर हम द्युलोक का आरोहण करनेवाले बनें। यह द्युलोक 'मूर्धा' है। हम मस्तिष्क की उन्नति करनेवाले बनें। [घ] और अब मस्तिष्क को खूब विकसित करके हम अपनी इस अग्या बुद्धि से, तीक्ष्ण व सूक्ष्म बुद्धि से उस प्रभु का दर्शन करें।
भावार्थ - भावार्थ- हम पृथिवी से अन्तरिक्ष को अन्तरिक्ष से द्युलोक को, तथा द्युलोक से स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करें।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal