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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 48
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रबृहस्पत्यादयो देवताः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    यत्र॑ बा॒णाः स॒म्पत॑न्ति कुमा॒रा वि॑शि॒खाऽइ॑व। तन्न॒ऽइन्द्रो॒ बृह॒स्पति॒रदि॑तिः॒ शर्म॑ यच्छतु वि॒श्वाहा॒ शर्म॑ यच्छतु॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑। बा॒णाः। सं॒पत॒न्तीति॑ स॒म्ऽपत॑न्ति। कु॒मा॒राः। वि॒शि॒खाऽइ॒वेति॑ विशि॒खाःऽइ॑व। तत्। नः॒। इन्द्रः॑। बृह॒स्पतिः॑। अदि॑तिः। शर्म्म॑। य॒च्छ॒तु॒। वि॒श्वाहा॑। शर्म्म॑। य॒च्छ॒तु॒ ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र वाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखाऽइव । तन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। बाणाः। संपतन्तीति सम्ऽपतन्ति। कुमाराः। विशिखाऽइवेति विशिखाःऽइव। तत्। नः। इन्द्रः। बृहस्पतिः। अदितिः। शर्म्म। यच्छतु। विश्वाहा। शर्म्म। यच्छतु॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 48
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    पदार्थ -
    १. (यत्र) = जहाँ, अर्थात् जिस स्थान से (बाणाः) = [शरो ह्यात्मा] प्रणवरूप धनुष के शर बने हुए आत्मा, निरन्तर (प्रणव) = जप में लगे आत्मा अथवा 'वण् to sound' प्रभु के नाम का निरन्तर जप करनेवाले आत्मा (सम्पतन्ति) = सम्यक् गतिशील होते हैं और अपने को सदा उत्तम कर्मों में व्यापृत रखते हैं, इसीलिए २. (कुमाराः) = कामादि वासनाओं को बुरी तरह से नष्ट करनेवाले होते हैं ३. (विशिखा इव) = ये आत्मा प्रतिज्ञापूर्ति तक अपनी शिखा के न बाँधने का निश्चय किये हुए विशिख - से प्रतीत होते हैं, अथवा ये ज्ञानाग्नि की विशिष्ट ज्वालाओंवाले बनते हैं। ४. (तत्) = तब (नः) = हमें (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (बृहस्पतिः) = ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान का स्वामी परमात्मा (अदिति:) = जिसकी उपासना से खण्डन का भय ही नहीं रहता वह प्रभु शर्म यच्छतु-कल्याण व सुख प्राप्त कराये । (विश्वाहा शर्म यच्छतु) = यह हमें सदा सुख प्राप्त कराए। ५. वस्तुतः सुख प्राप्ति का साधन 'इन्द्र, बृहस्पति, व अदिति' शब्द से सूचित हुआ है। 'हम जितेन्द्रिय बनें, ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञानी बनें, तथा अपने मनों को वासनाओं से खण्डित न होने दें' तभी कल्याण होगा। जितेन्द्रियता से इन्द्रियों का शोधन करके, ज्ञान से बुद्धि को पवित्र करके तथा वासना - खण्डन से निर्मल मन होकर ही हम सदा कल्याण मार्ग पर आरूढ़ हो सकते हैं । ६. साथ ही हम [क] (बाणाः) = प्रभु-स्तवन में रत रहें। [ख] (सम्पतन्ति) = सम्यक् क्रियाशील हों। [ग] कुमाराः वासनाओं को कुचलनेवाले बनें। [घ] विशिखा इव वासना-विनाश के लिए बद्ध प्रतिज्ञ हों तथा विशिष्ट ज्ञान - ज्वालाओं को अपने में दीप्त करें।

    भावार्थ - भावार्थ- हम बाण हों, प्रभु लक्ष्य हों। हम शर की भाँति ब्रह्मरूप लक्ष्य में तन्मय हो जाएँ। यही कल्याण-प्राप्ति का साधन है।

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