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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    स॒मु॒द्रस्य॒ त्वाव॑क॒याग्ने॒ परि॑व्ययामसि। पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रस्य॑। त्वा॒। अव॑कया। अग्ने॑। परि॑। व्य॒या॒म॒सि॒। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रस्य त्वावकयाग्ने परि व्ययामसि । पावकोऽअस्मभ्यँशिवो भव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रस्य। त्वा। अवकया। अग्ने। परि। व्ययामसि। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के अनुसार जीवन-निर्माण से शरीर का स्वास्थ्य ही नहीं, मनःस्वास्थ्य भी प्राप्त होता है। 'प्रसन्न मन' सर्वोत्तम रक्षण-साधन है। मन के प्रसन्न होने पर रोग भी शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते। 'मनः प्रसाद' मनुष्य को सर्वोत्तम स्थिति प्राप्त कराता है, प्रभु जीव से कहते हैं हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (त्वा) = तुझे (समुद्रस्य) = [स+मुद्] सदा प्रसन्नता के साथ रहनेवाले मन की (अवकया) = रक्षाशक्ति से (परिव्ययामसि) = चारों ओर से आच्छादित करते हैं। यह 'मनःप्रसाद' तुझे सब आधि-व्याधियों के आक्रमण से बचाएगा। २. (पावक:) = मनःप्रसाद के द्वारा अपने जीवन को पवित्र बनानेवाला तू (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (शिवः भव) = कल्याण करनेवाला बन। तू अपने जीवन से कभी किसी का अशुभ न कर ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के साधन निम्न हैं- १. मनः प्रसाद के द्वारा अपने को आधि-व्याधियों से बचाना। २. ज्ञान के द्वारा जीवन को पवित्र बनाना। ३. सभी का कल्याण करना।

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