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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 43
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒स्माक॒मिन्द्रः॒ समृ॑तेषु ध्व॒जेष्व॒स्माकं॒ याऽइष॑व॒स्ता ज॑यन्तु। अ॒स्माकं॑ वी॒राऽउत्त॑रे भवन्त्व॒स्माँ२ऽउ॑ देवाऽअवता॒ हवे॑षु॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्माक॑म्। इन्द्रः॑। समृ॑ते॒ष्विति॒ सम्ऽऋ॑तेषु। ध्व॒जेषु॑। अ॒स्माक॑म्। याः। इष॑वः। ताः। ज॒य॒न्तु॒। अ॒स्माक॑म्। वी॒राः। उत्त॑र॒ इत्युत्ऽत॑रे। भ॒व॒न्तु॒। अ॒स्मान्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। दे॒वाः॒। अ॒व॒त॒। हवे॑षु ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकँयाऽइषवस्ता जयन्तु । अस्माकँवीराऽउत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवाऽअवता हवेषु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम्। इन्द्रः। समृतेष्विति सम्ऽऋतेषु। ध्वजेषु। अस्माकम्। याः। इषवः। ताः। जयन्तु। अस्माकम्। वीराः। उत्तर इत्युत्ऽतरे। भवन्तु। अस्मान्। ऊँऽइत्यूँ। देवाः। अवत। हवेषु॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 43
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    पदार्थ -
    १. (ध्वजेषु समृतेषु) = ध्वजाओं व पताकाओं के ठीकरूप से प्राप्त कर लेने पर (अस्माकम्) = हम आस्तिक बुद्धिवालों का नियामक (इन्द्रः) = परमात्मा हो, अर्थात् हम प्रभु को अपना आश्रय मानकर चलें। 'ध्वजा' एक लक्ष्य का प्रतीक है जब हम एक लक्ष्य बनालें तब प्रभु को अपना आश्रय बनाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाएँ। संसार में प्रभु का आश्रय मनुष्य को कभी निरुत्साहित नहीं होने देता। आस्तिक मनुष्य सदा प्रभु को अपनाता है और किसी प्रकार से निरुत्साहित न होकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चलता है। २. (अस्माकम्) = हम आस्तिक्य वृत्तिवालों की (याः) = जो (इषवः) = प्रेरणाएँ हैं, अन्तःस्थित प्रभु से दिये जा रहे निर्देश हैं (ताः) = वे निर्देश और प्रेरणाएँ ही (जयन्तु) = जीतें । प्रभु की प्रेरणा होती है कि 'उष:काल हो गया, उठ बैठ क्या सो रहा है?' उसी समय एक इच्छा पैदा होती है कि 'कितनी मधुर वायु चल रही है, रात को नींद भी तो पूरी नहीं आई। दिन में अलसाते रहोगे, ज़रा सो ही लो।' सामान्यतः यह इच्छा उस प्रेरणा को दबा देती है और मनुष्य सोया रह जाता है। हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि आपकी प्रेरणाए ही विजयी हों, हमारी इच्छाएँ नहीं । ३. (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों में (वीराः) = वीरत्व की भावनाएँ, न कि कायरता की वृत्ति (उत्तरे भवन्तु) = उत्कृष्ट हों, प्रबल हों। दबकर कोई कार्य करना मनुष्यत्व से गिरना है । हमारे कार्य वीरता का परिचय दें। ४. (देवाः) = हे देवो! (अस्मान्) = हम आस्तिकों को (हवेषु) = [आहवेषु] संग्रामों में [उ] = निश्चय से (अवत) = रक्षित करो। देव हमारे रक्षक हों। वस्तुतः [क] जब हम प्रभु में पूर्ण आस्था से चलेंगे, [ख] सदा अन्तःस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे, [ग] सदा वीरता के ही कार्य करेंगे तब देवताओं की रक्षा के पात्र क्यों न होंगे?

    भावार्थ - भावार्थ - १. जीवन-लक्ष्य को ओझल न होने देते हुए हम प्रभु को अपना आश्रय समझें । २. हमारे जीवन में हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा की विजय हो, न कि हमारी इच्छा की। ३. हम सदा वीरतापूर्ण कार्य ही करें और ४. हम सदा अध्यात्म-संग्रामों में देवों की रक्षा के पात्र हों।

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