यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 92
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - यज्ञपुरुषो देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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त्रिधा॑ हि॒तं प॒णिभि॑र्गु॒ह्यमा॑नं॒ गवि॑ दे॒वासो॑ घृ॒तमन्व॑विन्दन्। इन्द्र॒ऽएक॒ꣳ सूर्य॒ऽएक॑ञ्जजान वे॒नादेक॑ꣳस्व॒धया॒ निष्ट॑तक्षुः॥९२॥
स्वर सहित पद पाठत्रिधा॑। हि॒तम्। प॒णिभि॒रिति॑ प॒णिऽभिः॑। गु॒ह्यमा॑नम्। गवि॑। दे॒वासः॑। घृ॒तम्। अनु॑। अ॒वि॒न्द॒न्। इन्द्रः॑। एक॑म्। सूर्यः॑। एक॑म्। ज॒जा॒न॒। वे॒नात्। एक॑म्। स्व॒धया॑। निः। त॒त॒क्षुः॒ ॥९२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिधा हितम्पणिभिर्गुह्यमानङ्गवि देवासो घृतमन्वविन्दन् । इन्द्रऽएकँ सूर्यऽएकञ्जजान वेनादेकँ स्वधया निष्टतक्षुः ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्रिधा। हितम्। पणिभिरिति पणिऽभिः। गुह्यमानम्। गवि। देवासः। घृतम्। अनु। अविन्दन्। इन्द्रः। एकम्। सूर्यः। एकम्। जजान। वेनात्। एकम्। स्वधया। निः। ततक्षुः॥९२॥
विषय - इन्द्र-सूर्य और वेन
पदार्थ -
१. प्रभु (त्रिधा हितम्) = तीन प्रकार से हमारे हृदयों में निहित होते हैं। जिस समय हम “ शारीरिक स्वास्थ्य, मानस-नैर्मल्य व बौद्धिक ज्ञान-दीप्ति' को धारण करते हैं तब अपने में प्रभु को स्थापित करनेवाले होते हैं। अथवा 'ज्ञान, कर्म व भक्ति' का समन्वय होने पर वे प्रभु हममें निवास करते हैं। उस त्रिधा हित प्रभु को, २ तथा (पणिभिः) = [पण् स्तुतौ] स्तुति करनेवाले उपासकों से (गुह्यमानम्) = [गुह= to hug, to embrace ] आलिङ्गन किये जाते हुए प्रभु को, ३. (देवासः) = देववृत्तिवाले लोग, मानस में दैवी सम्पत्ति का विकास करनेवाले लोग (गवि) = वेदवाणी में (घृतम्) = ज्ञान के पुञ्ज, प्रकाशमय प्रभु को (अन्वविन्दन्) = आत्मस्वरूप के दर्शन के साथ देखते व प्राप्त करते हैं। ४. मन्त्र के प्रारम्भ में 'त्रिधा हितम्' शब्दों से प्रभु को 'त्रिधा हित'=ज्ञान-कर्म व भक्ति से प्राप्य कहा है। इनमें में (एकम्) = एक अर्थात् ज्ञान को (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय, इन्द्रियों को वश में करनेवाला व्यक्ति (जजान) = उत्पन्न करता है। जितेन्द्रिय ही ज्ञानी बन पाता है। ५. (एकम्) = एक को अर्थात् कर्म को (सूर्य:) = सूर्य (जजान) = उत्पन्न करता है। सूर्य निरन्तर चल रहा है 'सरति इति सूर्यः' । निरन्तर चलने से ही वह चमकता भी है। इसी प्रकार जो व्यक्ति निरन्तर क्रियाशील होता है वह भी सूर्य के व्रत में चलता हुआ सूर्य की भाँति ही चमकता है। इस क्रियाशील में किसी प्रकार की मलिनताएँ उत्पन्न नहीं होतीं। यह प्रभु के प्रकाश को देखनेवाला होता है। ६. (वेनात्) = [ वेनति: कान्तिकर्मा, कान्तिः=इच्छा] उस प्रभु की प्राप्ति की प्रबल कामना करनेवाले में (एकम्) = एक को, अर्थात् भक्ति की भावना को (स्वधया) = उस अन्न के सेवन से जोकि यज्ञों में विनियुक्त होकर यज्ञशेष के रूप में सेवन किया जा रहा है (निष्टतक्षुः) = नितरां निर्मित करते हैं। अभिप्राय यह है कि भक्ति की भावना तब विकसित होती है। [क] जब हृदय में प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामना हो और [ख] स्वधा का सेवन हो। उस अन्न का ही प्रयोग किया जाए जो यज्ञों में विनियुक्त होकर अब यज्ञशेष के रूप में हमारे पास है। यही यज्ञशेष अमृत है। इस अमृत के सेवन करनेवाले देव ही प्रभु को पाया करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - हम 'इन्द्र' बनकर ज्ञान का सम्पादन करें, सूर्य-शिष्य बनकर कर्मठ बनें तथा वेन बनकर स्वधा का सेवन करते हुए भक्ति की भावना को जागरित करें। यही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है। इसपर चलते हुए ही हम प्रभु का आलिङ्गन करनेवाले बनेंगे।
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