यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 38
अग्न॒ऽआयू॑षि पवस॒ऽआ सु॒वोर्ज॒मिषं॑ च नः। आ॒रे बा॑धस्व दु॒च्छुना॑म्॥३८॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। आयू॑षि। प॒व॒से॒। आ। सु॒व॒। ऊर्ज॑म्। इष॑म्। च॒। नः॒। आ॒रे। बा॒ध॒स्व॒। दु॒च्छुना॑म् ॥३८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न आयूँषि पवस्व आ सुवोर्जमिषञ्च नः । आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। आयूषि। पवसे। आ। सुव। ऊर्जम्। इषम्। च। नः। आरे। बाधस्व। दुच्छुनाम्॥३८॥
विषय - दीर्घायुष्य के तीन साधन
पदार्थ -
१ (अग्ने) = हे परमात्मन्! (आयूँषि) = आयुष्य के पावक कर्मों को ही (पवसे) = [पावयसे चेष्टयसे] हमसे करवाइए। आपकी कृपा व प्रेरणा से हमारे सारे आहार-विहार ऐसे हों जो दीर्घजीवन का कारण बनें। २. इस दीर्घजीवन के लिए ही आप (नः) = हमें (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को देनेवाले दुग्धादि पदार्थों को तथा (इषम्) = व्रीह्यादि धान्यों को (आसुव) = दीजिए । दीर्घजीवन के लिए हम 'अन्न व रस' का ही सेवन करनेवाले बनें तथा ३. साथ ही आप ऐसी कृपा कीजिए कि (दुच्छुनाम्) = [दुष्टं श्वनं] दुष्ट कुत्तों के समान मनुष्यों को आरे दूर ही (बाधस्व) = नष्ट कीजिए। हमसे इन्हें दूर ही रखिए। यह दुष्टसङ्ग दीर्घजीवन के लिए बड़ा विघ्न होता है। [तैः रहितो हि पुरुषः परमायुः प्राप्नोति - द०] दुष्टसङ्ग से रहित पुरुष ही दीर्घजीवन प्राप्त करता है।
भावार्थ - भावार्थ- दीर्घजीवन के लिए आवश्यक है कि १. क्रियाशील बना जाए [पवसे] २. व्रीहि व दधि आदि अन्न-रसों का ही प्रयोग किया जाए ३. दुष्ट सङ्ग से दूर रहा जाए।
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