यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 58
ऋषिः - शङ्ख ऋषिः
देवता - पितरो देवताः
छन्दः - विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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आ य॑न्तु नः पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॑ऽग्निष्वा॒त्ताः प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑। अ॒स्मिन् य॒ज्ञे स्व॒धया॒ मद॒न्तोऽधि॑ ब्रुवन्तु॒ तेऽवन्त्व॒स्मान्॥५८॥
स्वर सहित पद पाठआ। य॒न्तु॒। नः॒। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताः। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ता इत्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताः। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒ऽयानैः॑। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। स्व॒धया॑। मद॑न्तः। अधि॑। ब्रु॒व॒न्तु॒। ते। अ॒व॒न्तु॒। अ॒स्मान् ॥५८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आयन्तु नः पितरः सोम्यासोग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयाणैः । अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोधिब्रुवन्तु ते वन्त्वस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। यन्तु। नः। पितरः। सोम्यासः। अग्निष्वात्ताः। अग्निष्वात्ता इत्यग्निऽस्वात्ताः। पथिभिरिति पथिऽभिः। देवयानैरिति देवऽयानैः। अस्मिन्। यज्ञे। स्वधया। मदन्तः। अधि। ब्रुवन्तु। ते। अवन्तु। अस्मान्॥५८॥
विषय - अग्निष्वात् पितर
पदार्थ -
१. (अग्रिष्वात्ताः) = [गृहीताग्निविद्या :- द०] जिन्होंने अग्निविद्या का ग्रहण किया है। यहाँ अग्नि शब्द 'पृथिवी, जल, तेज [अग्नि], वायु व आकाश' इन पञ्चभूतों के मध्य में स्थित हुआ पाँचों भूतों की विद्या का संकेत कर रहा है। एवं अग्निष्वात्त पितर वे हैं जिन्होंने सब भूतों के विज्ञान का सम्यक् अध्ययन किया है, जीवन को सुन्दर व स्वस्थ बनाने के लिए सब भूतों का विज्ञान आवश्यक ही है। (सोम्यासः) = जो पितर अत्यन्त सौम्य व शान्त स्वभाव के हैं। (पथिभिः देवयानैः) = और अब देवयान मार्गों से जीवन के कार्यक्रम को चला रहे हैं। वे (पितरः) = पितर (नः आयन्तु) = हमारे समीप आमन्त्रित होकर आएँ। २. (अस्मिन् यज्ञे) = अपने इस यज्ञरूप जीवन में (स्वधया) = आत्मज्ञान का धारण करनेवाले सात्त्विक ज्ञान से (मदन्तः) = आनन्द का अनुभव करते हुए (अधिब्रुवन्तु) = हमें खूब उपदेश दें और अपने इन ज्ञानपूर्ण उपदेशों से (अस्मान् अवन्तु) = हमें सुरक्षित करें। उन उपदेशों से हमें ऐसी प्रेरणा प्राप्त हो कि हम अपने जीवनों को वासना से बचानेवाले बनें। वासनाओं से ऊपर उठकर अपने जीवन को नाश से बचा पाएँ।
भावार्थ - भावार्थ- पदार्थविज्ञान में निपुण देवयान मार्ग से चलनेवाले ज्ञानी आचार्य हमें वह ज्ञान दें जो ज्ञान हमें इस जीवन में वासनाओं से सुरक्षित करे।
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