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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 65
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    योऽअ॒ग्निः क॑व्य॒वाह॑नः पि॒तॄन् यक्ष॑दृता॒वृधः॑। प्रेदु॑ ह॒व्यानि॑ वोचति दे॒वेभ्य॑श्च पि॒तृभ्य॒ आ॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। अ॒ग्निः। क॒व्य॒वाह॑न॒ इति॑ कव्य॒ऽवाह॑नः। पि॒तॄन्। यक्ष॑त्। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। प्र। इत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। ह॒व्यानि॑। वो॒च॒ति॒। दे॒वेभ्यः॑। च॒। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। आ ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योऽअग्निः कव्यवाहनः पितऋृन्यक्षदृतावृधः । प्रेदु हव्यानि वोचति देवेभ्यश्च पितृभ्यऽआ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अग्निः। कव्यवाहन इति कव्यऽवाहनः। पितॄन्। यक्षत्। ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः। प्र। इत्। ऊँऽइत्यूँ। हव्यानि। वोचति। देवेभ्यः। च। पितृभ्य इति पितृऽभ्यः। आ॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 65
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के अनुसार आचार्य से ज्ञान प्राप्त करके विद्यार्थी भी ज्ञानी बना है। ('अग्निनाग्निः समिध्यते') = ज्ञानाग्नि से दीप्त आचार्य से विद्यार्थी में भी ज्ञानाग्नि समिद्ध की जाती है, आचार्य अग्नि से विद्यार्थी भी अग्नि बना है। आचार्य 'कव्यवाहन' था, विद्यार्थी भी कव्यवाहन बना है। (यः) = जो भी (अग्निः) = ज्ञानाग्नि से दीप्त हुआ (कव्यवाहनः) = सब विद्याओं के प्रतिपादक वेदज्ञान का धारण करनेवाला ज्ञानी सन्तान है, वह (ऋतावृधः) = सत्यज्ञान से वृद्ध अथवा सत्य व उससे बढ़े हुए पितॄन् ज्ञान द्वारा रक्षक इन पितरों का (यक्षत्) = [यज् पूजा] सत्कार करता है, इनके साथ अपना सम्पर्क बनाता है [यज् सङ्गतिकरण], इनके प्रति अपना अर्पण करता है [यज् दान] । २. (इत् उ) = और अब इन (देवेभ्यः) = ज्ञान को देनेवाले अथवा ज्ञान से देदीप्यमान (पितृभ्यः) = ज्ञानप्रद पितरों के प्रति (आ) = आकर [आगत्य ] (हव्यानि) = ग्रहण करने योग्य विज्ञानों को (प्रवोचति) = अच्छी प्रकार कहता है, अर्थात् सारा प्राप्त किया ज्ञान उन्हें सुनाता है। मन्त्र २४ में कहा था कि 'प्रत्याश्रवोऽनुरूप:' पढ़े पाठ को फिर से सुना देनेवाला आचार्य के अनुरूप ही बन जाता है। यहाँ वही भावना 'प्रेदु हव्यानि वोचति' से कही है। धारण किया हुआ ज्ञान 'कव्य' था। उसी ज्ञान को सुनाने का प्रसंग आया तो वही ज्ञान 'हव्य' हो गया। आचार्य विद्यार्थी के प्रति 'कव्य' का वहन करता है। विद्यार्थी 'कव्यवाहन' बनकर इसी ज्ञान का जब आचार्यों के प्रति प्रत्याश्रावण करता है तब 'हव्य' का प्रबन्धन कर रहा होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम आचार्यों से कव्य-सब सत्यविद्याओं के प्रतिपादक ज्ञान को ग्रहण करेंइसे आचार्यों को सुनाकर सब प्रजाओं में उस ज्ञान को देनेवाले बनें। हमारा 'कव्य' 'हव्यहो जाए, प्रजाओं में आहुति के योग्य हो जाए।

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