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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 4
    ऋषिः - आभूतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    पु॒नाति॑ ते परि॒स्रुत॒ꣳ सोम॒ꣳ सूर्य॑स्य दुहि॒ता। वारे॑ण॒ शश्व॑ता॒ तना॑॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒नाति॑। ते॒। प॒रिस्रुत॒मिति॑ परि॒ऽस्रुत॑म्। सोम॑म्। सूर्य्य॑स्य। दु॒हि॒ता। वारे॑ण। शश्व॑ता तना॑ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनाति ते परिस्रुतँ सोमँ सूर्यस्य दुहिता । वारेण शश्वता तना ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनाति। ते। परिस्रुतमिति परिऽस्रुतम्। सोमम्। सूर्य्यस्य। दुहिता। वारेण। शश्वता तना॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    १. प्रभु 'आभूति' से कहते हैं कि (ते) = तेरे (परिस्स्रुतम्) = शरीर में सर्वतः प्राप्त इस (सोमम्) = सोम को (सूर्यस्य दुहिता ='श्रद्धा वै सूर्यस्य दुहिता') ज्ञान की पुत्री के समान यह श्रद्धा पुनाति = पवित्र कर देती है। यह श्रद्धा हमारे सोम को पवित्र करती है। श्रद्धा वस्तुतः हममें सत्य का धारण कराती है [श्रत् सत्यं दधाति] और यह सत्य सोम को पवित्र बनानेवाला होता है। २. यह श्रद्धा (वारेण) = असत्य व वासनाओं के निवारण से सोम को पवित्र करती है। वासनाएँ ही सोम की अपवित्रता का कारण बनती हैं। ३. यह श्रद्धा (शश्वता) = [शश प्लुतगतौ] द्रुत गतिवाले जीवन से सोम को पवित्र रखती है। श्रद्धावान् पुरुष प्रभु में विश्वास करके सदा उत्तम क्रिया में लगा रहता है। बस, यही उत्तम क्रिया सोमरक्षण का साधन बनती है। ४. यह श्रद्धा (तना) = [तन् विस्तारे] शरीर की शक्तियों के विस्तार द्वारा सोम की सुरक्षा व पवित्रता करती है। शरीर की शक्तियों के विस्तार में व्याप्त हुआ-हुआ सोम पवित्र बना रहता है। ५. वस्तुतः सोमरक्षा के लिए आवश्यक है कि हम [क] वासनाओं का निवारण करें, [ख] सदा उत्तम कर्मों में स्फूर्ति से लगे रहें और [ग] शक्तियों के विस्तार की श्रद्धावाले हों, अर्थात् शक्तियों के विस्तार के लिए हममें प्रबल भावना हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- श्रद्धा सोम को पवित्र करती है, क्योंकि यह वासनाओं का निवारण है, हमें स्फूर्ति - सम्पन्न व कर्मठ बनाती है तथा शक्तियों के विस्तार के लिए प्रेरित करती है।

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