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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 40
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
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    प॒वित्रे॑ण पुनीहि मा॑ शु॒क्रेण॑ देव॒ दीद्य॑त्। अग्ने॒ क्रत्वा॒ क्रतूँ॒२ऽरनु॑॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒वित्रे॑ण। पु॒नी॒हि॒। मा॒। शु॒क्रेण॑। दे॒व॒। दीद्य॑त्। अग्ने॑। क्रत्वा॑। क्रतू॑न्। अनु॑ ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवित्रेण पुनीहि मा शुक्रेण देव दीद्यत् । अग्ने क्रत्वा क्रतूँरनु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पवित्रेण। पुनीहि। मा। शुक्रेण। देव। दीद्यत्। अग्ने। क्रत्वा। क्रतून्। अनु॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 40
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति पर 'जातवेदः पुनीहि मा' यह प्रार्थना थी। उसी प्रार्थना को दूसरे शब्दों में करते हुए मन्त्र का आरम्भ करते हैं कि (देव) = ज्ञान की ज्योति से दीप्त होनेवाले तथा पवित्र अन्तःकरणों को द्योतित करनेवाले प्रभो ! (मा) = मुझे (पवित्रेण) = पवित्रता के सर्वोत्तम साधनभूत ज्ञान से (पुनीहि) = पवित्र कीजिए। मेरा ज्ञान उत्तम होगा तो विचारों की उत्तमता के कारण मेरे उच्चारण व आचरण भी उत्तम होंगे। विचार ही स्थूलरूप धारण करके क्रिया में परिणत हुआ करते हैं । २. हे दीद्यत् तेजस्विता से दीप्त प्रभो! आप मुझे (शुक्रेण) = शीघ्रता से कार्य करने में समर्थ करनेवाली वीर्यशक्ति से (पुनीहि) = पवित्र कीजिए । यह सुरक्षित 'शुक्र' ही तो मेरे मानस को 'शुचि' [पवित्र] बनाएगा। ३. हे (अग्ने) = सारे संसार को गति देनेवाले प्रभो ! (क्रतून् अनु) = यज्ञों का लक्ष्य करके (क्रत्वा) = संकल्प व क्रिया से मुझे पवित्र कीजिए। मेरे हृदय में सदा यज्ञात्मक कर्मों का ही संकल्प हो तथा उस संकल्प के अनुसार मैं उन यज्ञों के सम्पादन में प्रवृत्त रहूँ । ये यज्ञ ही उत्तम कर्म हैं। इनमें निरन्तर प्रवृत्त मैं अपने जीवन को अपवित्रता से बचा सकूँगा ।

    भावार्थ - भावार्थ- हे प्रभो ! मुझे ज्ञान-शक्ति तथा उत्तम कर्मों के संकल्पों द्वारा पवित्र कीजिए ।

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