यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 70
ऋषिः - शङ्ख ऋषिः
देवता - पितरो देवताः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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उ॒शन्त॑स्त्वा॒ नि धी॑मह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि। उ॒शन्नु॑श॒तऽआ व॑ह पि॒तॄन् ह॒विषे॒ऽअत्त॑वे॥७०॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शन्तः॑। त्वा॒। नि। धी॒म॒हि॒। उ॒शन्तः॑। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। उ॒शन्। उ॒श॒तः। आ। व॒ह॒। पि॒तॄन्। ह॒विषे॑। अत्त॑वे ॥७० ॥
स्वर रहित मन्त्र
उशन्तस्त्वा नि धीमह्युशन्तः समिधीमहि । उशन्नुशतऽआवह पितऋृन्हविषेऽअत्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
उशन्तः। त्वा। नि। धीमहि। उशन्तः। सम्। इधीमहि। उशन्। उशतः। आ। वह। पितॄन्। हविषे। अत्तवे॥७०॥
विषय - हवि का अदन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार 'अग्नि' से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि (उशन्तः) = कामना करते हुए हम (त्वा) = आपको (निधीमहि) = अपने हृदय मन्दिर में स्थापित करते हैं। जब हमें प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामना होती है, तभी हम अपने हृदयों में प्रभु का स्थापन कर पाते हैं । २. (उशन्तः) = आपकी प्राप्ति की प्रबल कामना करते हुए ही हम (समिधीमहि) = अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करने के लिए यज्ञ करते हैं। ज्ञानाग्नि के प्रकाश में ही तो आपका दर्शन हो पाएगा। ३.( उशतः) = आपकी प्राप्ति की कामना करते हुए हमें (उशन्) = चाहते हुए आप हमें (पितॄन् आवह) = उन ज्ञानी पितरों को प्राप्त कराइए, जिनके सम्पर्क से हमारे जीवन में सदा (हविषे अत्तवे) = हवि खाने की भावना उत्पन्न हो। हम हवि का ही सेवन करें, सदा दानपूर्वक खानेवाले बनें। वस्तुतः इस हवि से ही प्रभु का भी पूजन होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाले हों। प्रभु को हृदयों में धारण करें, इसी उद्देश्य से ज्ञान को समिद्ध करें। ज्ञानप्रद पितरों के सम्पर्क को प्राप्त करके हवि के खाने का पाठ पढ़ें। यह हवि ही हमारा प्रभुपूजन बन जाएगी।
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