यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 71
अ॒पां फेने॑न॒ नमु॑चेः॒ शिर॑ऽइ॒न्द्रोद॑वर्त्तयः। विश्वा॒ यदज॑यः॒ स्पृधः॑॥७१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम्। फेने॑न। नमु॑चेः। शिरः॑। इ॒न्द्र॒। उत्। अ॒व॒र्त्त॒यः॒। विश्वाः॑। यत्। अज॑यः। स्पृधः॑ ॥७१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपाम्फेनेन नमुचेः शिर इन्द्रोदवर्तयः । विश्वा यदजय स्पृधः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अपाम्। फेनेन। नमुचेः। शिरः। इन्द्र। उत्। अवर्त्तयः। विश्वाः। यत्। अजयः। स्पृधः॥७१॥
विषय - नमुचि-शिरश्छेदन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार पितरों के सम्पर्क में रहकर पुरुष अपने जीवन को यज्ञमय बनाता है। मन्त्र ६९ के अनुसार पितर 'ऋतमाशुषाणा:' सदा यज्ञों में व्याप्त रहनेवाले थे। उनके सम्पर्क में आनेवाला व्यक्ति भी सदा यज्ञात्मक कर्मों में लगता है। यह कर्मरत होने से ही विषयों में लिप्त नहीं होता । इन्द्रियों को जीतकर यह जितेन्द्रिय बनता है, अतः कहते हैं कि हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (अपाम) = कर्मों के (फेनेन) = [वर्धनेन - द०] वर्धन से, अपने जीवन को सदा कर्मों में लगाये रखने से (नमुचेः) = नमुचि के अन्त तक पीछा न छोड़ने वाली [न+मुच] अभिमानवृत्ति के (शिरः उदवर्तयः) = सिर को तूने काट डाला है। कार्यरत पुरुष गर्व से ऊपर उठा रहता है। अभिमान वही करता है जो स्वयं काम न करके औरों को ही काम करने की आज्ञा देता रहता है। २. तू अभिमान को तो जीतता ही है (यत्) = यह वह क्षण होता है जब तू (विश्वाः स्पृधः) = सब शत्रुओं को (अजयः) = जीत लेता है। काम, क्रोध, लोभ आदि सब स्पर्धा करनेवाले शत्रुओं को तू पराजित करनेवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ- कर्मों में लगे रहने से मनुष्य आसुरवृत्तियों का शिकार नहीं होता।
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