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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 80
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सीसे॑न॒ तन्त्रं॒ मन॑सा मनी॒षिण॑ऽऊर्णासू॒त्रेण॑ क॒वयो॑ वयन्ति। अ॒श्विना॑ य॒ज्ञꣳ स॑वि॒ता सर॑स्व॒तीन्द्र॑स्य रू॒पं वरु॑णो भिष॒ज्यन्॥८०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीसे॑न। तन्त्र॑म्। मन॑सा। म॒नी॒षिणः॑। ऊ॒र्णा॒सू॒त्रेणेत्यू॑र्णाऽसू॒त्रेण॑। क॒वयः॑। व॒य॒न्ति॒। अ॒श्विना॑। य॒ज्ञम्। स॒वि॒ता। सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। वरु॑णः। भि॒ष॒ज्यन् ॥८० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीसेन तन्त्रम्मनसा मनीषिणाऽऊर्णासूत्रेण कवयो वयन्ति । अश्विना यज्ञँ सविता सरस्वतीन्द्रस्य रूपँवरुणो भिषज्यन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सीसेन। तन्त्रम्। मनसा। मनीषिणः। ऊर्णासूत्रेणेत्यूर्णाऽसूत्रेण। कवयः। वयन्ति। अश्विना। यज्ञम्। सविता। सरस्वती। इन्द्रस्य। रूपम्। वरुणः। भिषज्यन्॥८०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 80
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्रों में राजा के राष्ट्र को सुरक्षित करने, उसमें न्याय-व्यवस्था को ठीक रखने का उल्लेख हो चुका है। प्रस्तुत मन्त्र में आर्थिक स्थिति का विचार करते हुए कहते हैं कि राष्ट्र में राजा 'कुटीर उद्योग' को प्रिय बनाने का प्रयत्न करे । 'तन्त्र' के यहाँ दो अर्थ अपेक्षित हैं- [क] परिवार का पालन [ Supporting of a family] तथा [ख] Loom खड्डी [वस्त्र-निर्माणयन्त्र] । यहाँ खड्डी अन्य छोटे-छोटे यन्त्रों का भी प्रतीक है । २. राजा ऐसी व्यवस्था करता है कि (मनीषिणः) = विद्वान् पुरुष (मनसा) = विचारपूर्वक (सीसेन) = सीसे आदि धातुओं से (तन्त्रम्) = छोटे-छोटे यन्त्रों को बनाते हैं, जिन यन्त्रों के द्वारा कार्य करते हुए वे मनीषी लोग इतना धन अवश्य कमा लेते हैं कि वे अपने परिवार का पालन कर सकें। ३. ये (कवयः) = क्रान्तदर्शी लोग ऊर्णासूत्रेण ऊन के सूत्रों से (वयन्ति) = आवश्यक वस्त्रादि बुनते हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये विद्वान् स्वयं बुनते हैं, औरों से बनवाते नहीं। इससे श्रम का महत्त्व बढ़ता है- दासप्रथा की हीनभावना उत्पन्न नहीं होती, धन की अत्यधिक विषमता भी नहीं होती । ४. इस प्रकार स्वयं अपने हाथ से कार्य करते हुए इन (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय, ज्ञानी पुरुषों के (यज्ञम्) = जीवन-यज्ञ को (अश्विना) = प्राणापान (सविता) = निर्माण की देवता तथा (सरस्वती) = विद्या की अधिदेवता (वयन्ति) = संहत करते है, बनाते हैं। प्राणापान इन्हें आलसी नहीं होने देते, सविता व निर्माण इन्हें आवश्यकताओं की पूर्ति में कभी -अभाव का अनुभव नहीं कराता तथा सरस्वती इनके जीवन में उलझनों को नहीं आने देती । ५. (भिषज्यन्) = चिकित्सा करता हुआ (वरुणः) = वरुणदेव-द्वेषनिवारण (रूपम्) = इस इन्द्र के रूप को सुन्दर बनाता है। इसे रोगी नहीं होने देता और स्वास्थ्य व सौन्दर्य को प्राप्त कराता है। वस्तुतः ईर्ष्या-द्वेष की वृत्तियाँ ही रोगों को पैदा करके मनुष्य को अस्वस्थ करती हैं और उसके रूप को हर लेती हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - १. राजा राष्ट्र में कुटीर उद्योग की इस प्रकार व्यवस्था करे कि लोगों के जीवन में आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न न हों। २. जीवनयज्ञ के उत्तम सञ्चालन के लिए प्राणापान की शक्ति का वर्धन हो, निर्माण की वृत्ति हो तथा विज्ञान की वृद्धि हो । ३. ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य आदि के अभाव से सभी नीरोग व सुरूप हों।

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