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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 11
    ऋषिः - पराशर ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ यदि॒षे नृ॒पतिं॒ तेज॒ऽआन॒ट् शुचि॒ रेतो॒ निषि॑क्तं॒ द्यौर॒भीके॑।अ॒ग्निः शर्द्ध॑मनव॒द्यं युवा॑नꣳस्वा॒ध्यं जनयत्सू॒दय॑च्च॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। यत्। इ॒षे। नृ॒पति॒मिति॑ नृ॒ऽपति॑म्। तेजः॑। आन॑ट्। शुचि॑। रेतः॑। निषि॑क्तम्। निषि॑क्त॒मिति॒ निऽसि॑क्तम्। द्यौः। अ॒भीके॑ ॥ अ॒ग्निः। शर्द्ध॑म्। अ॒न॒व॒द्यम्। युवा॑नम्। स्वा॒ध्य᳖मिति॑। सुऽआ॒ध्य᳖म्। ज॒न॒य॒त्। सू॒दय॑त्। च॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यदिषे नृपतिन्तेज आनट्शुचि रेतो निषिक्तन्द्यौरभीके । अग्निः शर्धमनवद्यँयुवानँ स्वाध्यञ्जनयत्सूदयच्च ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यत्। इषे। नृपतिमिति नृऽपतिम्। तेजः। आनट्। शुचि। रेतः। निषिक्तम्। निषिक्तमिति निऽसिक्तम्। द्यौः। अभीके॥ अग्निः। शर्द्धम्। अनवद्यम्। युवानम्। स्वाध्यमिति। सुऽआध्यम्। जनयत्। सूदयत्। च॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    १. संसार में मनुष्य प्रयत्न करता है, परन्तु शतशः प्रयत्नों के होते हुए भी कई बार वह ठीक मार्ग पर नहीं चल पाता। विघ्न प्रबल होते हैं, वह उन्हें नहीं जीत पाता, परन्तु प्रभु की (इषे) = प्रेरणा होने पर (नृपतिम्) = [ना चासौ पतिश्च] इस आगे बढ़नेवाले इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव को (तेज:) = तेज (यत्) = जब (आनट्) = समन्तात व्याप्त होता है तब (शुचि रेत:) = वह शुद्ध रेतस् [वीर्य] (द्यौः) = मस्तिष्करूप द्युलोक के (अभीके) = समीप, अर्थात् ज्ञानाग्नि में (निषिक्तम्) = सिक्त होता है, यह वीर्य ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और यह (नृपति) = जितेन्द्रिय मनुष्य उस (नृपतिः) = सब मनुष्यों के स्वामी प्रभु के दर्शन के योग्य बनता है। एवं, इस मन्त्र के पूर्वार्ध में निम्न बातें स्पष्ट हैं- [क] उन्नति प्रभुकृपा से ही होती है जब मनुष्य प्रभुप्रेरणा को सुन पाता है तभी उसमें इन्द्रियों का स्वामी बनने की भावना जागती है। [ख] यह जितेन्द्रिय [नृपति] ही तेजस्वी बन पाता है। [ग] इसका यह वासनाओं से अदूषित, पवित्र तेज इसकी ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है। २. दीप्त ज्ञानाग्निवाला यह (अग्निः) = उन्नतिशील पुरुष (जनयत्) = उस प्रभु के दर्शन करता है, हृदय में उसका प्रादुर्भाव कर पाता है, जो प्रभु [क] (शर्द्धम्) = तेज हैं, तेज के पुञ्ज हैं। [ख] (अनवद्यम्) = जिनमें किसी प्रकार का अवद्य पाप नहीं है, जो अपापविद्ध हैं। [ग] (युवानम्) = जो अशुभ को दूर करके शुभ के साथ हमें संपृक्त करनेवाले हैं। [घ] (स्वाध्यम्) = [सु आध्य] उत्तमता से सर्वथा ध्यान करने योग्य हैं। इस प्रभु के प्रादुर्भाव से यह आत्मा भी तेजस्वी, निष्पाप व अशुभ से दूर व शुभ से युक्त होती है। ३. प्रभु का अपने हृदयान्तरिक्ष में प्रादुर्भाव करनेवाला यह अग्नि इस प्रभु का मित्र बनकर सूदयत् च-सब काम-क्रोधादि वासनाओं को नष्ट कर देता है [सूद to kill]। जब तक जीव अकेला था, वासनाओं का शिकार हो जाता था, परन्तु अब प्रभु से मित्रता करके यह वासनाओं को भस्म करने योग्य हो गया है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु प्रेरणा से जितेन्द्रिय बन हम ऊर्ध्वरेतस् बनें, ज्ञानाग्नि को दीप्त कर प्रभु-दर्शन करें। वासनाओं को सुदूर विशरण करनेवाला व्यक्ति ही 'पराशर' है।

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