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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 19
    ऋषिः - पुरुमीढाजमीढावृषी देवता - इन्द्रवायू देवते छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    गाव॒ऽउपा॑वताव॒तं म॒ही य॒ज्ञस्य॑ र॒प्सुदा॑। उ॒भा कर्णा॑ हिर॒ण्यया॑॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गावः॑। उप॑। अ॒व॒त॒। अ॒व॒तम्। म॒हीऽइति॑ म॒ही। य॒ज्ञस्य॑। र॒प्सुदा॑ ॥ उ॒भा। कर्णा॑। हि॒र॒ण्यया॑ ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गावऽउपावतावतम्मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गावः। उप। अवत। अवतम्। महीऽइति मही। यज्ञस्य। रप्सुदा॥ उभा। कर्णा। हिरण्यया॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -
    १. (गावः) = हे वेदवाणियो! अवतम् हृदयान्तरिक्ष को, मेरी हृदयरूप गुहा को (उपावतम्) = [अव= भाग, वृद्धि] अपना भाग बनाओ उसका सेवन करो और उसका वर्धन करी । वेदवाणियाँ हमारे हृदयों में स्फुरित हों। उनके स्फुरण से हमारे हृदय विशाल बनें। २. ये वेदवाणियाँ (मही) = महान् [पूजनीय] हैं अथवा हमारे हृदयों को महान् बनानेवाली हैं तथा (यज्ञस्य) = श्रेष्ठतम कर्मों का (रप्सुदा) = उत्तमता से प्रतिपादन करनेवाली हैं। इन वेदवाणियों में यज्ञों का उपदेश दिया गया है। ३. इन वेदवाणियों से (उभा कर्णा) = हमारे दोनों कान (हिरण्यया) = ज्योतिर्मय हो उठे हैं। कानों में ज्ञान की वाणियों के प्रवेश से हमारा अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया है। इस अज्ञानान्धकार के नष्ट होने से प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि स्वार्थ भावनाओं से ऊपर उठकर 'पुरुमीढ' बन गया है, बहुत का पालन-पोषण करनेवाला हो गया है। यह क्रियाशीलता के द्वारा सभी के सुखों को बढ़ानेवाला होने से 'अजमीढ' नामवाला बना है।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारे हृदयों में वेदवाणी का प्रादुर्भाव हो। इन वेदवाणियों से हमारे हृदय विशाल बनें व यज्ञिय भावनावाले हों। हमारे कान सदा इन वाणियों के श्रवण से पवित्र व हितकर हों।

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