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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 71
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    गाव॒ऽउपा॑वताव॒तं म॒ही य॒ज्ञस्य॑ र॒प्सुदा॑।उ॒भा कर्णा॑ हिर॒ण्यया॑॥७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गावः। उप॑। अ॒वत॒। अ॒वतम्। म॒हीऽइति॑ म॒ही। य॒ज्ञस्य॑। र॒प्सुदा॑ ॥ उभा। कर्णा॑। हि॒र॒ण्यया॑ ॥७१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गावऽउपावतावतम्मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गावः। उप। अवत। अवतम्। महीऽइति मही। यज्ञस्य। रप्सुदा॥ उभा। कर्णा। हिरण्यया॥७१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 71
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    पदार्थ -
    वसिष्ठ वेदवाणियों को सम्बोधित करते हुए कहता है कि (गावः) = हे वेदवाणियो ! (अवतम्)‍ = मेरे हृदयरूप गुहा को [गर्त को] (उपावत) = समीपता से रक्षित करो, अर्थात् मेरा हृदय वेदवाणियों का अधिष्ठान बने, जिससे वहाँ वासनाओं का कूड़ा-कर्कट जमा हो न जाए। ये वेदवाणियाँ (मही) = महनीय हैं, पूजा की वृत्ति को उत्पन्न करनेवाली हैं। इनके अध्ययन से हमारा झुकाव प्रभु की ओर होता है। (यज्ञस्य रप्सुदा) = ये वेदवाणियाँ यज्ञों के 'रप-सु-दा' व्यक्त प्रतिपादन को उत्तमता से देनेवाली हैं। इन वेदवाणियों में यज्ञों का उत्तमता से प्रतिपादन है। वेदों में नाना प्रकार के यज्ञों का वर्णन है। इस वेदवाणी को सुनने से हमारे (उभा कर्णा) = दोनों कान (हिरण्यया) = ज्योतिर्मय हों। इनसे हमारा ज्ञान दीप्त हो । हृदय वासनारूप मलों का

    भावार्थ - भावार्थ- वेदवाणियों के अध्ययन से निम्न लाभ हैं- [क] स्थान नहीं बनता, [ख] मन प्रभु प्रवण होता है, [ग] यज्ञमय कर्मों में रुचि बढ़ती है, [घ] कान ज्योतिर्मय होते हैं, अर्थात् ज्ञान बढ़ता है।

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