यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 34
आ न॒ऽइडा॑भिर्वि॒दथे॑ सुश॒स्ति वि॒श्वान॑रः सवि॒ता दे॒वऽए॑तु।अपि॒ यथा॑ युवानो॒ मत्स॑था नो॒ विश्वं॒ जग॑दभिपि॒त्वे म॑नी॒षा॥३४॥
स्वर सहित पद पाठआ। नः॒। इडा॑भिः। वि॒दथे॑। सु॒श॒स्तीति॑ सुऽश॒स्ति। वि॒श्वान॑रः। स॒वि॒ता। दे॒वः। ए॒तु॒ ॥ अपि॑। यथा॑। यु॒वा॒नः॒। मत्स॑थ। नः॒। विश्व॑म्। जग॑त्। अ॒भि॒पि॒त्व इत्य॑भिऽपि॒त्वे। म॒नी॒षा ॥३४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नऽइडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देवऽएतु । अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वञ्जगदभिपित्वे मनीषा ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। नः। इडाभिः। विदथे। सुशस्तीति सुऽशस्ति। विश्वानरः। सविता। देवः। एतु॥ अपि। यथा। युवानः। मत्सथ। नः। विश्वम्। जगत्। अभिपित्व इत्यभिऽपित्वे। मनीषा॥३४॥
विषय - ज्ञानयज्ञों का प्रस्ताव
पदार्थ -
१. (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (इडाभि:) = वाणियों के द्वारा (सुशस्ति) = [सप्तमी का लुक्] उत्तम शंसन होने पर (विश्वानरः) = सबको उन्नतिपथ पर ले चलनेवाला (सविता) = सबका प्रेरक (देवः) = देव (नः) = हमें (आ) = सर्वथा एतु प्राप्त हो । यदि हम घरों में ज्ञानयज्ञों की परिपाटी डालें, सब घरवाले उपस्थित होकर धर्मग्रन्थों का पाठ करें तो यह पाठ हमारी प्रवृत्ति को अवश्य प्रभु-प्रवण करेगा। २. इसका परिणाम अपि यह भी होगा कि (नः युवानः) = हमारे नौजवान, तरुण (मत्सथा) = मत्त नहीं हो जाते। छोटी उमर में वासना का वेग होता ही नहीं, वृद्धावस्था में वह शान्तप्राय हो जाता है, यौवन ही क्षोभ की अवस्था है। इस ज्ञानयज्ञ के निरन्तर चलने से यौवन में भी जीवन - समुद्र क्षुब्ध न होकर शान्त रहता है। इस ज्ञानयज्ञ के होने पर ३. (विश्वं जगत् अभिपित्वे) = सम्पूर्ण जगत् की प्राप्ति में हम (मनीषा) = बुद्धि से चलते हैं। हमारी प्रत्येक वस्तु के लिए एक बुद्धिपूर्वक पहुँच wise approach होती है। हम किसी भी कार्य में नासमझी से प्रवृत्त नहीं होते। इसी का परिणाम होता है कि हम पापों में नहीं फँसते । यह पापों में न फँसनेवाला व्यक्ति ही 'अगस्त्य' है।
भावार्थ - भावार्थ- हम अपने घर के सदस्यों को ज्ञानयज्ञों में प्रवृत्त करें और उनमें प्रभु की, ऋषियों की वाणियाँ पढ़ें तो हमारा झुकाव १. प्रभु की ओर रहेगा २. जीवन में मद न हो पाएगा तथा ३. प्रत्येक स्थिति में हम समझ से चलेंगे। ऋषि
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