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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 80
    ऋषिः - बृहद्दिव ऋषिः देवता - महेन्द्रो देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    तदिदा॑स॒ भुव॑नेषु॒ ज्येष्ठं॒ यतो॑ ज॒ज्ञऽ उ॒ग्रस्त्वे॒षनृ॑म्णः।स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो निरि॑णाति॒ शत्रू॒ननु॒ यं विश्वे॒ मद॒न्त्यूमाः॑॥८०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। इत्। आ॒स॒। भुव॑नेषु। ज्येष्ठ॑म्। यतः॑। ज॒ज्ञे। उ॒ग्रः। त्वे॒षनृ॑म्ण॒ इति॑ त्वे॒षऽनृ॑म्णः ॥ स॒द्यः। ज॒ज्ञा॒नः। निरि॑णाति। शत्रू॑न्। अनु॑। यम्। विश्वे॑। मद॑न्ति। ऊमाः॑ ॥८० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठँयतो जज्ञऽउग्रस्त्वेषनृम्णः । सद्यो जज्ञानो नि रिणाति शत्रूननु यँविश्वे मदन्त्यूमाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। इत्। आस। भुवनेषु। ज्येष्ठम्। यतः। जज्ञे। उग्रः। त्वेषनृम्ण इति त्वेषऽनृम्णः॥ सद्यः। जज्ञानः। निरिणाति। शत्रून्। अनु। यम्। विश्वे। मदन्ति। ऊमाः॥८०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 80
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    पदार्थ -
    १. (तत्) = वह दूर से दूर भी वर्त्तमान, [तत् = that] सर्वव्यापक प्रभु [तनु विस्तारे] (इत्) = निश्चय से (भुवनेषु) = सारे लोकों में (ज्येष्ठम्) = बड़े आस हैं। प्रभु सर्वव्यापक हैं, सर्वमहान् हैं। सब गुणों की चरम सीमा प्रभु हैं । २. प्रभु वे हैं (यतः) = जिनसे जीव भी (उग्र:) = उदात्तस्वरूपवाला व (त्वेषनृम्णः) = दीप्तबलवाला [नृम्ण = Power, Courage] जज्ञे हो जाता है। अग्नि के सम्पर्क में आकर जैसे लोहशलाका अग्निमय हो जाती है, उसी प्रकार प्रभु के सम्पर्क में जीव उग्र व दीप्त हो उठता है । ३. इस प्रकार उग्र, तेजस्वी (जज्ञान:) = होता हुआ यह उपासक (सद्यः) = झटपट (शत्रून्) = ध्वंसकशक्तियों को (निरिणाति) = निश्चय से नष्ट कर देता है। प्रभु के तेज से तेजस्वी होकर वह सुगमता से शत्रुओं का संहार कर पाता है। ४. इस प्रकार प्रभु वे हैं (यम् अनु) = जिनके पीछे चलकर, जिनके अनुयायी बनकर (विश्वे) = सब (ऊमाः) = शत्रुओं से अपना रक्षण करनेवाले (मदन्ति) = आनन्द का अनुभव करते हैं। काम-क्रोध की पूर्ण विजय में ही आनन्द है। इस विजय के पश्चात् ही कामरूप आवरण के दूर होने पर हमारा ज्ञान चमकता है और हम प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'बृहद्दिव' - महान् ज्ञानवाले बन पाते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु की ज्येष्ठता को अनुभव करें, प्रभु के सम्पर्क से दीप्तबलवाले बनें,शत्रुओं का संहार करें, आनन्द का लाभ करनेवाले हों।

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