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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 35
    ऋषिः - श्रुतकक्षसुकक्षावृषी देवता - सूर्यो देवता छन्दः - पिपीलिकामध्या निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
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    यद॒द्य कच्च॑ वृत्रहन्नु॒दगा॑ऽअ॒भि सू॑र्य्य।सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। अ॒द्य। कत्। च॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। उ॒दगा॒ इत्यु॒त्ऽअगाः॑। अ॒भि। सू॒र्य्य॒ ॥ सर्व॑म्। तत्। इ॒न्द्र॒। ते॒ वशे॑ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य । सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अद्य। कत्। च। वृत्रहन्निति वृत्रऽहन्। उदगा इत्युत्ऽअगाः। अभि। सूर्य्य॥ सर्वम्। तत्। इन्द्र। ते वशे॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 35
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    पदार्थ -
    १. प्रभु ज्ञानयज्ञों का विस्तार करनेवालों से कहते हैं कि हे (वृत्रहन्) = वासना को नष्ट करनेवाले (सूर्य) = ज्ञान-सूर्य के समान चमकनेवाले! तू (यत्) = जो (अद्य) = आज (कत् च) = या कभी भी, जब भी (उत्) = प्रकृति से ऊपर उठकर मेरी प्रभु की ओर चल सकता है। इच्छा होनी चाहिए, इच्छा होने पर रास्ता निकल आता है। प्रकृति से ऊपर उठना कठिन है, परन्तु सकल्प कर लेने पर कुछ कठिन नहीं रह जाता। क्रम यह है १. संकल्प २. ज्ञान-प्राप्ति, ज्ञान के सूर्य का उदय ३. वासना का विनाश ४. प्रभु की ओर चलना व प्रभु को पाना । २. मन्त्रार्थ इस रूप में भी ठीक है- हे वासनाओं को नष्ट करनेवाले! ज्ञान से सूर्य के समान चमकनेवाले इन्द्र ! आज या कल जब भी तू प्रकृति से ऊपर उठकर मेरी ओर आता है (तत्) = तब (सर्वम्) = सब (ते वश) = तेरे वश में हो जाता है। जिसने प्रभु को पा लिया, उसने सभी कुछ पा लिया। ज्ञान-विज्ञान के सूर्य को अपने में उदित करनेवाले 'श्रुतकक्ष व सुकक्ष' प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि हैं। यह ज्ञान को ही अपनी शरण समझते है, श्रुत ही कक्ष है और यह ज्ञानरूप शरण कितनी उत्तम है? इसी से यह सुकक्ष है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम अपनी इच्छा ज्ञानप्राप्ति की बनाएँ, उससे वासना का विनाश करके प्रभु की ओर चलें और प्रभु को पाकर ब्रह्माण्ड को वश में करनेवाले हों।

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