यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 43
ऋषिः - हिरण्यस्तूप ऋषिः
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च।हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न्॥४३॥
स्वर सहित पद पाठआ। कृ॒ष्णेन॑। रज॑सा। वर्त्त॑मानः। नि॒वे॒शय॒न्निति॑ निऽवे॒शय॑न्। अ॒मृत॑म्। मर्त्य॑म्। च॒ ॥ हि॒र॒ण्यये॑न। स॒वि॒ता। रथे॑न। आ। दे॒वः। या॒ति॒। भुव॑नानि। पश्य॑न् ॥४३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। कृष्णेन। रजसा। वर्त्तमानः। निवेशयन्निति निऽवेशयन्। अमृतम्। मर्त्यम्। च॥ हिरण्ययेन। सविता। रथेन। आ। देवः। याति। भुवनानि। पश्यन्॥४३॥
विषय - ऊर्ध्व रेतस् बनना-हिरण्यस्तूप
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार अपनी पाँच वस्तुओं का विकास करके, विकास ही नहीं अपितु विकास के मूलभूत सोम की रक्षा करके प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'हिरण्यस्तूप' बना है [हिरण्यं वीर्यम् स्तूप = to raise], शक्ति की ऊर्ध्वगति करनेवाला हुआ है। इसके जीवन में निम्न बातें होती है। १. यह (आकृष्णेन) = आकर्षक अथवा [कृषिर्भूवाचक: णश्च निर्वृतिवाचक :] स्वास्थ्य व सन्तोष का सञ्चार करनेवाले (रजसा) = [रजः कर्मणि] कर्मसमूह के साथ (वर्त्तमान:) = वर्त्तमान होता है। इसका कार्य स्वास्थ्य व सन्तोष को फैलाना होता है, और अपने इस कार्य को यह बड़ी मधुरता से करता है। २. (अमृतं मर्त्यं च) = [क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते] अपने क्षरांश इस पाँचभौतिक शरीर को और अक्षरांश कूटस्थ आत्मतत्त्व को (निवेशयन्) = निश्चय से स्वस्थान में निविष्ट करनेवाला होता है। सामान्य भाषा में यह शारीरिक व आत्मिक दृष्टिकोण से स्वस्थ बनने का प्रयत्न करता है। शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ होता हुआ ही यह स्वास्थ्य का सञ्चार कर पाता है। मानस व आत्मदृष्टि से सन्तुष्ट यह सन्तोष को फैलाता है। स्वयं स्वस्थ व सन्तुष्ट ही तो औरों को स्वस्थ व सन्तुष्ट बना सकता है । ३. यह (सविता) = सबको प्रेरणा देनेवाला हिरण्यस्तूप ऋषि (देवः) = स्वयं दिव्य गुणोंवाला बनता है और (हिरण्येन रथेन) = ज्योतिर्मय रथ से चलता है। ज्ञान को बढ़ाकर स्वयं प्रकाशमय बनकर, यह औरों को भी मार्गदर्शन करने में समर्थ होता है। मन में दिव्यता और मस्तिष्क में ज्योति को लेकर जब यह प्रजा का नेतृत्व करने चलता है तब उनको भटकाने का कारण नहीं बन जाता। ४. स्वस्थ शरीर, दिव्य मन व उज्ज्वल मस्तिष्क को पाकर ही यह स्वयं को कृतकृत्य नहीं मान बैठता, अपितु यह (भुवनानि पश्यन्) = सब भूतों का ध्यान करता हुआ [Looking after all] (याति) = चलता है। अथवा (याति) = प्रभु की ओर बढ़ता है, सर्वभूतहिते रतः ही प्रभु का सच्चा भक्त होता है।
भावार्थ - भावार्थ- -हम हिरण्यस्तूप बनकर शरीर व आत्मा को स्वस्थ रखते हुए प्रजाओं में भी स्वास्थ्य को फैलाने का प्रयत्न करते हुए प्रभु की ओर चलें।
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