यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 93
ऋषिः - सुहोत्र ऋषिः
देवता - इन्द्राग्नी देवते
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
0
इन्द्रा॑ग्नीऽअ॒पादि॒यं पूर्वागा॑त् प॒द्वती॑भ्यः।हि॒त्वी शिरो॑ जि॒ह्वया॒ वाव॑द॒च्चर॑त् त्रि॒ꣳशत् प॒दा न्य॑क्रमीत्॥९३॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑ग्नी॒ऽइतीन्द्रा॑ग्नी। अ॒पात्। इ॒यम्। पूर्वा॑। आ। अ॒गा॒त्। प॒द्वती॑भ्यः॒ऽइति॑ प॒त्ऽवती॑भ्यः ॥ हि॒त्वी। शिरः। जि॒ह्वया॑। वाव॑दत्। चर॑त्। त्रि॒ꣳशत्। प॒दा। नि। अ॒क्र॒मी॒त् ॥९३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नीऽअपादियम्पूर्वागात्पद्वतीभ्यः । हित्वी शिरो जिह्वया वावदच्चरत्त्रिँशत्पदा न्यक्रमीत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नीऽइतीन्द्राग्नी। अपात्। इयम्। पूर्वा। आ। अगात्। पद्वतीभ्यःऽइति पत्ऽवतीभ्यः॥ हित्वी। शिरः। जिह्वया। वावदत्। चरत्। त्रिꣳशत्। पदा। नि। अक्रमीत्॥९३॥
विषय - एक आदर्श पत्नी
पदार्थ -
१. 'इन्द्राग्नी' शब्द द्विवचन है, परन्तु मन्त्रके अगले 'अपात्', 'इयं' आदि सब शब्द एकवचन हैं, अतः 'इन्द्र और अग्नि' अर्थ न करके हम 'इन्द्र की अग्नि' अर्थ लेंगे। घर में पुरुष ने 'इन्द्र' होना, अर्थात् पति को सदा जितेन्द्रिय होना। इसकी पत्नी अग्नि है, घर की सब प्रकार की उन्नति का कारण है। गृहिणी ने घर को सब दृष्टिकोणों से उन्नत करना है। इससे एक बात तो सुव्यक्त है कि उसका स्थान घर में हैं, उसने इधर-उधर नहीं घूमना । घूमती हुई पत्नी ठीक नहीं मानी जाती, अतः मन्त्र को इस भावना से प्रारम्भ करते हैं २. (इयम्) = यह 'अग्नि' घर की उन्नतिसाधक पत्नी (अपात्) = बिना पाँववाली है, अर्थात् यह व्यर्थ में इधर-उधर नहीं घूमती । 'अपात्' यह कितनी सुन्दर काव्यमय भाषा है, बाहर जाने के लिए उसके पाँव ही नहीं हैं। ३. 'अपात्' होती हुई भी यह घर में बड़ी क्रियाशील है। (पद्वतीभ्यः) = उत्तम पाँववालियों से भी (पूर्वा अगात्) = पहले पहुँची होती है, अर्थात् यह अधिक-से-अधिक क्रियामय जीवनवाली होती है। घर के कार्यों में बड़ी स्फूर्तिवाली होती है । ४. यह अपनी प्रत्येक क्रिया को पूर्ण समझदारी के साथ करती है (शिरः हित्वी) = सिर को धारण [दधातेर्हि:] करके चलती है। इसका मस्तिष्क सदा सन्तुलित रहता है। इसी कारण यह अपने कार्यों को कुशलता से कर पाती है । ५. यह अपने कार्यों को करती हुई (जिह्वया) = जिह्वा से (वावदत्) = निरन्तर प्रभु के पवित्र मन्त्रों का उच्चारण करती है। ६. चरत् उन नामों के अनुसार यह अपनी क्रिया को भी बनाती है। उन नामों को आचरण में लाती है। 'प्रभु दयालु हैं' तो यह भी दयालु बनने का ध्यान करती है और इस प्रकार इसका जीवन प्रभु के गुणों को अपने में धारण कर रहा होता है। जिस पत्नी का जीवन इस प्रकार प्रभु के गुणों को धारण करके प्रभु का ही छोटा रूप हो जाता है, वहाँ देवों का निवास तो होगा ही। यही बात यहाँ निम्न शब्दों में कहते हैं-७. यह पत्नी (त्रिंशत् पदा) = तीस [पद गतौ] कदमों से (न्यक्रमीत्) = निश्चयपूर्वक चलती है, अर्थात् अपने घर में तीस देवों के निवास के लिए प्रयत्नशील होती है। पति 'इन्द्र' देवता है, पत्नी भी 'अग्नि' देवता ही है, अतः इनका सन्तान भी देव क्यों न होगा? एवं, 'पति, पत्नी व सन्तान' तीन मुख्य देव तो ये हुए, इनके अतिरिक्त तीस देवों, अर्थात् सब अच्छाइयों को अपने घर में लाने का पत्नी ने प्रयत्न करना है। जब ये अपने प्रयत्न में सफल होकर घर को तैंतीस देवों का निवासस्थान बना पाती है तब वहाँ ३४वें महादेव का निवास तो होता ही है। वही घर प्रभु का घर बनता है जहाँ देवों का निवास हो, ऐसा घर देवगृह बनकर 'स्वर्ग' बन जाता है।
भावार्थ - भावार्थ- पत्नी घर में रहकर निरन्तर क्रियाशीलता से घर को बड़ा सुन्दर बना पाती है। यह समझदारी से प्रत्येक काम को करती है। प्रभु को नहीं भूलती। प्रभु का अनुकरण करने का प्रयत्न करती है और अपने घर को देवों का निवासस्थान बनाकर प्रभु को आमन्त्रित करती है।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal