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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 84
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
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    अद॑ब्धेभिः सवितः पा॒युभि॒ष्ट्वꣳ शि॒वेभि॑र॒द्य परि॑ पाहि नो॒ गय॑म्।हिर॑ण्यजिह्वः सुवि॒ताय॒ नव्य॑से॒ रक्षा॒ माकि॑र्नोऽअ॒घश॑ꣳसऽईशत॥८४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अद॑ब्धेभिः। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। पा॒युभि॒रिति॑ पा॒युऽभिः॑। त्वम्। शि॒वेभिः॑। अ॒द्य। परि॑। पा॒हि। नः॒। गय॑म् ॥ हिर॑ण्यजिह्व॒ इति॒ हिर॑ण्यजिह्वः। सु॒वि॒ताय॑। नव्य॑से। र॒क्ष॒। माकिः॑। नः॒। अ॒घशं॑सः। ई॒श॒त॒ ॥८४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदब्धेभिः सवितः पायुभिष्ट्वँ शिवेभिरद्य परि पाहि नो गयम् । हिरण्यजिह्वः सुविताय नव्यसे रक्षा माकिर्ना अघशँस ईशत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदब्धेभिः। सवितरिति सवितः। पायुभिरिति पायुऽभिः। त्वम्। शिवेभिः। अद्य। परि। पाहि। नः। गयम्॥ हिरण्यजिह्व इति हिरण्यजिह्वः। सुविताय। नव्यसे। रक्ष। माकिः। नः। अघशंसः। ईशत॥८४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 84
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र में कहा गया था कि ऋषि लोग प्रभु को ही अपना (सहस्) = बल मानते हैं। प्रभु को अपनी शक्ति बनानेवाला यह 'भरद्वाज' बनता है, अपने में शक्ति को भर लेता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि (सवितः) = हे सर्वप्रेरक सर्वैश्वर्यवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (अद्य) = आज (अदब्धेभिः) = न हिंसित होनेवाले, न दबनेवाले (शिवेभिः) = कल्याणकर (पायुभिः) = रक्षणों से (नः) = हमारे (गयम्) = इस शरीररूप घर को व प्राणों को (परिपाहि) = सर्वतः सुरक्षित कीजिए । वस्तुतः प्रभुकृपा से ही हमारा जीवन उत्तम बन पाता है, प्रभु के रक्षण अहिंसित व शिव हैं। उनसे मैं स्वस्थ, निर्मल व दीप्त बनता हूँ। २. वे प्रभु (हिरण्यजिह्वः) = हितरमणीय जिह्वावाले हैं, उनकी एक-एक प्रेरणा जीवन के हित का साधन करनेवाली व अत्यन्त सुन्दर है। उस प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति (सुविताय) = सदा (सु इत) = उत्तम आचरण के लिए होता है, कभी दुरितों में नहीं फँसता । (नव्यसे) = [नू स्तुतौ] यह प्रभु के स्तवन में प्रवृत्त होता है, यह प्रकृति के आकर्षण का शिकार नहीं हो जाता। प्रकृति का सौन्दर्य भी उसे प्रभु का स्तवन करते ही प्रतीत होता है। ३. यह 'भरद्वाज' प्रभु से आराधना करता है कि (अघशंसः) = पाप का शंसन करनेवाला कोई व्यक्ति (नः) = हमारा (माकि: ईशत) = ईश न हो जाए, अर्थात् उसकी बातों से प्रभावित होकर हम पाप में प्रवृत्त न हो जाएँ। पाप प्रशंसकों की बातों में न आकर ही हम अपनी शक्ति को स्थिर रखनेवाले 'भरद्वाज' बने रह सकेंगे।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु का रक्षण अदब्ध व शिव है। प्रभु की प्रेरणा हितरमणीय है। उसका सुननेवाला शुभमार्ग से विचलित नहीं होता और दुष्टों की बातों से बहक नहीं जाता।

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